सुख पाने के प्रयास: असफल क्यों, सफल कैसे

सुख पाने के प्रयास: असफल क्यों, सफल कैसे ?

            हमारे आयुर्वेद के मनीषियों का मानना है कि संसार के सब मनुष्य व प्राणी जीवन भर जो भी कार्य करते है, उन सब कार्यों के पीछे एक ही उद्देश्य होता है और वह है-सुख। 'सुखार्थाः सर्व भूतानां अतः सर्व प्रवृत्तयः।' अर्थात् सब प्राणियों की सब प्रवृत्ति, भाग-दौड़ केवल सुख के लिए ही होती है। सचाई वो जो सबके हृदय से निकले। अन्य प्राणियों के बारे में तो क्या कहें, हां मनुष्य की बात करें तो संसार में ढंढे से भी एक न मिले जो दुःख पाने के लिए कोई कार्य का प्रयास करता हो। चोर चोरी भी करता है तो जेल जाने के लिए नहीं करता। हर मनुष्य की अपने हर कार्य से सुख पाने की अपनी निजी योजना होती है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हमने सुख पाने की जो योजना बनाई है क्या प्राकृतिक व्यवस्थाएं., सामाजिक मर्यादाएं भी उसकी अनुमति देती है। क्या शासन-संविधान की दृष्टि से हमारी सुख पाने की योजना मेल खाती है? अगर हां तो वह योजना ठीक है, देर-सवेर सफल होने की सम्भावना है। अगर उत्तर ना है तो भोले भैया प्रकृति के नियमों के विपरीत जाकर, समाज शासन के विपरीत जाकर सुख पाना सम्भव नहीं! सुख पाने की तेरी योजना में सबसे पहले प्रकृति ही बाधा डालेगी, समाज व शासन तुझे रोकेगा। छोड़ दे ऐसी योजना को, वह तेरा कोरा भ्रम है। आज के मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि वह प्रकृति के नियमों, समाज की मर्यादाओं व शासन की व्यवस्थाओं की अनदेखी करके सुख पाने की योजनाएं बनाता है, फलस्वरूप उसकी ऐसी सारी योजनाएं आत्म हनन रूपी भय से प्रारम्भ होकर संकटों-समस्याओं, विसंगति और अन्तर्विरोधों से टकराकर दम तोड़ देती है। हां सम्भव है कि ऐसी योजना थोड़ी बहुत सफल होती दिखे, थोड़ा बहुत सुख मिलता हुआ दिखे, मगर ध्यान रखो, ऐसे आधेअधूरे चिन्ता-व्याकुलता से सने हुए सुख से हमारी आपकी पूर्ण सन्तुष्टि नहीं होती। हमें जो सुख चाहिए उसे पाने के लिए सही दिशा में, उचित रीति से श्रम करने की आवश्यकता है। 
             सुख चाहने वालो ! एक बात का ध्यान रखो, सुख कमाया जाता है चोरी नहीं किया जाता। चोरी का सुख हमारे चित्त की शान्ति नष्ट कर देता है, चित्त अशान्त हो तो सुख स्वादहीन, रसहीन और फीका-सा हो जाता है। घर में पति-पत्नी या पिता-पुत्र में किसी बात पर मनमुटाव या अनबन हो जाए तो अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन में भी रुचि नहीं रहती। हमारे लिए सुख से कहीं अधिक मूल्यवान, अधिक तृप्तिकारक होती है शान्ति! जब भी हम किसी का सुख चुराकर, छीनकर भोगना चाहते हैं, उसी क्षण हमारे चित्त में अशान्त और व्याकुलता घर कर जाती है। उसके बाद जो सुख हम भोगते हैं, वह उस शान्ति और व्याकुलता के कारण रसहीन सा होकर रहता है। दूसरी दृष्टि से देखें तो चोरी का सुख एक प्रकार से बैंक से लिए गए प्रण के जैसा ही होता है। बैंक से हमें धन दो प्रकार से मिलता है-एक वह जो हमने पहले श्रम करके कमाकर बैंक में जमा कराया हो, दसरे वह जो हम बैंक से उधारी के रूप में लेकर आते हैं। अगर हमने पहले कमाकर जमाकर रखा है तो हम निश्चिन्त होकर ले आते हैं। हमारा धन था, हम ले आए। दूसरी ओर अगर हम उधार लेकर आते हैं तो उसे चुकाने की चिन्ता भी साथ ले आते हैं! सम्भव कि कई विपरीत परिस्थितियों में सरकारी अनुदान आदि के कारण बैंक हमारी उधार माफ कर दें, लेकिन परमात्मा की अटल कर्मफल व्यवस्था में माफी व छूट जैसी सुविधा नहीं है। अगर हमने बिना कमाये, बिना मूल्य चुकाये किसी का छीनकर या चुराकर सुख भोगा है तो उसके लिए भविष्य में पसीना तो बहाना ही पड़ेगा। कई बार आंसू बहाने पड़ते हैं। पहले श्रम करके सुख पा लो या पहले सुख पाकर श्रम करके उसका मूल्य चुका दो, चुकाना तो अवश्य पड़ेगा, लेने का फन्द देने से ही कटता है। पहले सुख पाकर बाद में चुकाना घाटे का सौदा हो सकता है। सच में देखा जाए तो उचित रीति से सत्य धर्म के पथपर चले बिना मनमाने ढंग से जो सुख पाने का प्रयास हम करते हैं वह सुख नहीं होता, केवल सुख का आभास जैसा होता है। सुख तो हमारे सत्कमों के फल के रूप में प्राप्त होता है। सत्कर्म किये बिना छीना-झपटी का सुख सुख नहीं माना जा सकता।
             मानव जीवन के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, परमात्मा के सच्चे स्वरूप को समझना, उसके गुण-कर्म, स्वभाव का सही ज्ञान प्राप्त करना। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते तो निश्चित मानिये कि हमारे जीवन की दशा और दिशा डावांडोल ही रहेगी। परमात्मा के बारे में अधिक नहीं तो इतना तो अवश्य जान लें कि इस विश्व (ब्रह्माण्ड) को बनाने वाला तथा चलाने वाला परमात्मा एक है, अनेक नहीं। वह सर्वत्र व्यापक है किसी स्थान विशेष मन्दिर-मस्जिद आदि में नहीं रहता। वह सर्वज्ञ है, सब कुछ जानता है। सर्वान्तर्यामी है, सब मनुष्यों व प्राणियों के हृदय की सब बातों को जानता है। वह सर्वशक्तिमान है, सृष्टि के बनाने, चलाने व हमारे कर्मों का फल देने आदि कामों में वह किसी की सहायता नहीं लेता। अपने ही सामर्थ्य से अपनी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता आदि गुणों से वह अकेला ही सब कामों को सहजभाव से करता रहता है। परमात्मा के सब नियम, सिद्धान्त व व्यवस्थाएं अटल है, अपरिवर्तनीय है। वह निष्पक्ष न्यायकारी है, उसके सामने सब प्राणी, विद्वान-मूर्ख, बलवान, निर्बल, धनी-निर्धन, गुणी- गुणहीन, भक्त-अभक्त आदि सब मनुष्य और सब पशु-पक्षी आदि सब समान है, किसी के प्रति कोई भेदभाव नहीं। परमात्मा किसी की भक्ति से रीझता नहीं और भक्ति न करने वाले से खीजता, रुठता नहीं! परमात्मा का कोई भी भक्त परमात्मा की व्यवस्था के विपरीत कुछ भी नहीं कर- कर सकता। परमात्मा के बारे में इतना तो प्रत्येक मनुष्य को अवश्य ही जान और मान लेना चाहिए। इसके विपरीत परमात्मा के बारे में कुछ भी कहना और मानना कोरा अन्धविश्वास है और कोरी मूर्खता है। देश और दनिया का पाग्य है कि परमात्मा के बारे में भांति-भांति की मनमानी मान्यताएं प्रचलित है और ये सब प्रचलित मान्यताएं, अन्धविश्वास को बढ़ाकर प्रान्तियों को जन्म देने वाली है। परमात्मा के स्वरूप के बारे में प्रान्ति, उसकी भक्ति-उपासना के बारे में प्रान्ति, उसकी कर्मफल व्यवस्था के बारे में प्रान्ति, उसके निष्पक्ष न्याय के बारे में प्रान्ति। इतनी प्रान्तियों में जीने वाला व्यक्ति सत्य, न्याय, नियम, सिद्धान्त और व्यवस्था व मर्यादाओं के मूल्य को समझने व स्वीकारने के योग्य कहा रह पाता है? जब उसे परमात्मा के न्याय में ही धांधली दिखाई देती हो तो लौकिक न्याय पर विश्वास टिकने का कोई कारण ही नहीं बचता। 
              परमात्मा का न्याय अटल है, उसकी हर व्यवस्था अटल है, वहां किसी के भी साथ नाम मात्र को भी भेदभाव या पक्षपात नहीं किया जाता। एक जनश्रुति भी है कि वहां देर भी नहीं है, अन्धेर नहीं। सच यह है कि वहां देर है और अन्धेर भी नहीं है। गेंह का और इमली का दाना एक साथ बोने पर भी फल एक साथ नहीं देते तो क्या इमली के फल को देर से मिला फल माने? ये परमेश्वर की व्यवस्था है, कौन-सा कर्म कब फल देगा यह निर्णय वही करता है। उसकी कर्मफल व्यवस्था को भली-भांति जानकर हम पाने के प्रयास करेंगे तो हमें देर-सवेर पूर्ण सफलता मिलेगी ही। सुख कमाने की जो चर्चा हम पूर्व पंक्तियों में कर चुके हैं। उसका सीधा अर्थ यही है कि हम दूसरों को सुख दें। सुख देने वाले को सदैव सुख मिलता है और दुःख देने वाले को दुःख मिलता है। दूसरों को सुख दिये बिना जो सुख पाना चाहते हैं वे ईश्वर की व्यवस्था के विरुद्ध जा रहे हैं। भला जो आपने किसी को दिया नहीं वो आपको मिलेगा कैसे? सुख और दुःख हमारे अच्छे-बुरे कर्मों के फल है। पहली बात तो बिना कर्म किए कोई फल उत्पन्न ही नहीं होता, दूसरी बात अच्छा कर्म का बुरा और बुरे कम का अच्छा फल नहीं होता। अच्छे और बुरे कर्म की कसौटी भी परमात्मा ने हम सबको दे रखी है। जो हमें अपने लिए अच्छा लगे वो अच्छा और जो अपने लिए बुरा लगे वो बुरा। हम किसी को गाली दे रहे हैं, किसी का अपमान या अहितकारी रहे हैं। किसी का धन लूट छीन या ठग रहे हैं, मिलावटी सामान दे रहे हैं। एक क्षण रुककर विचार करें कि कोई हमारे साथ ऐसा ही करें तो हमें कैसा लगेगा ? हृदय से उत्तर मिलेगा कि बुरा लगेगा तो मान लो यह बुरा कर्म है, इसका परिणाम भी बुरा ही मिलेगा। यही स्थिति सेवा, सम्मान आदि सत्कर्मों के प्रति देखी जाएगी।
            हमें सुख पाने की न्यायपूर्ण योजना बनानी होगी। हमें बड़ी सरलता से यह सोचना होगा कि हमारे कर्मों का फल मनुष्य नहीं परमात्मा देता है। झूठ, छल-कपट, जुगाड़बाजी, रिश्वतखोरी व पैसा-प्रभाव मनुष्यों में तो चल जाता है परमात्मा के यहां नहीं चलता। ध्यान रखो वहां आपसे पूछा नहीं जाता कि आपने क्या किया, क्यों किया। अच्छा-बुरा कर्म करने के बाद आपके हाथ में कुछ नहीं रहता। हमारे कर्मों को देखजानकर वह अपने आप तुरन्त उनका फल तय कर देता है। भलाई इसी में है कि हम कर्म करने से पहले ही सोच-विचार कर लें, सुख पाने के लिए सुख देना प्रारम्भ कर दें। कुछ छोटी सोच वाले दूसरो को सुख देना घाटे का सौदा मानते हैं, उनको समझाने के लिए इतना ही कहना है कि वे दूसरों को सुख देते समय यह न सोचें कि मैं किसी को सुख दे रहा है, बल्कि यह सोचे कि मैं अपने लिए सुख कमा रहा है। दूसरों को दुःख देते हुए भी यही सोच बनाएं तो निश्चित रूप से हमारे मनमस्तिष्क को सन्तुलित होकर सुख पाने की न्यायपूर्ण योजना पर काम करना शुरूकर देंगे और तब हमारी सुख पाने की सब योजनाएं अवश्य सफल होगी
-रामनिवास गुणग्राहकवैदिक प्रवक्ता एवं पुरोहित
आर्य समाज- श्रीगंगानगर (राज.)
चलभाष- ०७५९७८९४९९१

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