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“ईश्वर के सत्यस्वरूप और ज्ञान का प्रकाश सर्वप्रथम वेदों द्वारा किया गया”

“ईश्वर के सत्यस्वरूप और ज्ञान का प्रकाश सर्वप्रथम वेदों द्वारा किया गया” ========== संसार की अधिकांश जनसंख्या ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करती है। बहुत बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी किसी न किसी रूप में इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाली सत्ता के होने का संकेत करते हुए उसे दबी जुबान से स्वीकार करते हैं। हमारा अनुमान व विचार है कि यदि यूरोप के वैज्ञानिकों ने वेदों को पढ़ा होता और उनके सत्य अर्थों को जाना होता तो वह कदापि ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह न करते अपितु वह सच्चे योगी व धार्मिक होते जैसे कि वैदिक युग में भारत के ऋषि व वैज्ञानिक होते थे। संसार में प्रायः सभी प्रमुख मतों में ईश्वर को किसी न किसी रूप में माना जाता है। परमात्मा ने मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति के लिये बुद्धि दी है और इसके साथ ही सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान भी दिया था। यह चार वेद और इनके सत्य वेदार्थ, सृष्टि को बने हुए 1.96 अरब व्यतीत हो जाने के बाद, आज भी उपलब्ध हैं जिनका वर्तमान समय में मुख्य श्रेय ऋषि दयानन्द और उनकी स्थापित संस्था आर्यसमाज को है। किसी मत व सम्प्रदाय, आस्तिक व नास्तिक, का कोई भी अनुयायी यदि वेदों को निष्

सिख इतिहास के साथ धोखा---मियां मीर द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का झूठ

सिख इतिहास के साथ धोखा---मियां मीर द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का झूठ ---राजिंदर सिंह [सोशल मीडिया से ज्ञात हुआ कि अयोध्या में होने वाले राम मंदिर के शिलान्यास के कार्यक्रम में एक मुस्लिम मुहम्मद फैयाज खान द्वारा मंदिर की नींव में मिट्टी डालने की व्यवस्था मंदिर निर्माण कमेटी द्वारा की जा रही हैं। आज से 100 वर्ष बाद यह प्रचलित हो जायेगा कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण एक मुसलमान द्वारा किया गया था। हम मंदिर निर्माण कमेटी के सदस्यों से आग्रह करेंगे कि वे ऐसा आत्मघाती कदम न उठाये।  ऐसा ही एक असत्य कथन अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के विषय में प्रचलित हैं। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के विषय में प्रचलित असत्य कथन का निराकरण स्वर्गीय राजेंदर जी ने अपने इस लेख  में किया हैं। संयोग देखिये कि राजेंदर सिंह जी ने ही बाबरी मस्जिद विध्वंश मामले में अदालत के समक्ष सिख पंथ सम्बंधित ऐतिहासिक पुस्तकों के आधार पर साक्षी दी थी कि गुरु नानक अपने जीवन काल में अयोध्याय में राम मंदिर के दर्शन करने आये थे। उन्हीं का गवाही के आधार पर अदालत ने यह माना था की अयोध्या में बाबरी मस्जिद से पहले राम मंदिर था।]     यह

डॉ अम्बेडकर के सवर्ण मार्गदर्शक – मास्टर आत्माराम अमृतसरी

डॉ अम्बेडकर के सवर्ण मार्गदर्शक – मास्टर आत्माराम अमृतसरी (21 जुलाई को मास्टर आत्माराम जी की पुण्य तिथि पर विशेष रूप से प्रकाशित) 20वीं शताब्दी के आरंभ में हमारे देश में न केवल आज़ादी के लिए संघर्ष हुआ अपितु सामाजिक सुधार के लिए भी बड़े-बड़े आन्दोलन हुए। इन सभी सामाजिक आन्दालनों में एक था शिक्षा का समान अधिकार। प्रसिद्द समाज सुधारक स्वामी दयानंद द्वारा अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में उद्घोष किया गया कि राजा के पुत्र से लेकर एक गरीब व्यक्ति का बालक तक नगर से बाहर गुरुकुल में समान भोजन और अन्य सुविधायों के साथ उचित शिक्षा प्राप्त करे एवं उसका वर्ण उसकी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात ही निर्धारित हो और जो अपनी संतान को शिक्षा के लिए न भेजे उसे राजदंड दिया जाये। इस प्रकार एक शुद्र से लेकर एक ब्राह्मण तक सभी के बालकों को समान परिस्थियों में उचित शिक्षा दिलवाना और उसे समाज का एक जिम्मेदार नागरिक बनाना शिक्षा का मूल उद्देश्य था। स्वामी दयानंद के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा पाकर बरोदा नरेश शयाजी राव गायकवाड ने अपने राज्य में दलितों के उद्धार का निश्चय किया. आर्यसमाज के स्वामी नित्यानंद जब बरोद

🌷विश्वशान्ति केवल वेद द्वारा सम्भव🌷

🌷विश्वशान्ति केवल वेद द्वारा सम्भव🌷 आइये वेद के कुछ मन्त्रों का अवलोकन करें,कैसी दिव्य भावनाएं हैं:- अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।-(ऋग्वेद ५/६०/५) अर्थ:-ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा।तुम सब भाई-भाई हो।सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो। ईश्वर इस मन्त्र में मनुष्य-मात्र की समानता का उपदेश दे रहे हैं।इसके साथ साम्यवाद का भी स्थापन कर रहे हैं। अथर्ववेद के तीसरे काण्ड़ के तीसवें सूक्त में तो विश्व में शान्ति स्थापना के लिए जो उपदेश दिये गये हैं वे अद्भूत हैं।इन उपदेशों जऐसे उपदेश विश्व के अन्य धार्मिक साहित्य में ढूँढने से भी नहीं मिलेंगे। वेद उपदेश देता है- सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः । अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ।।-(अथर्व० ३/३०/१) अर्थ:-मैं तुम्हारे लिए एकह्रदयता,एकमनता और निर्वेरता करता हूं।एक-दूसरे को तुम सब और से प्रीति से चाहो,जैसे न मारने योग्य गौ उत्पन्न हुए बछड़े को प्यार करती है। वेद हार्दिक एकता का उपदेश देता है। वेद आगे कहता है- ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौ

सृष्टि―संवत्

    🌷 सृष्टि―संवत् 🌷    वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है। वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें कलियुग का प्रथम चरण व्यतीत हो रहा है। अर्थात् इस सातवें मन्वन्तर की सत्ताईस चतुर्युगियां व्यतीत हो चुकी हैं। अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के सत, त्रेता, द्वापर युग बीत चुके हैं। कलियुग के ५१२१ वर्ष बीत चुके हैं, विक्रम संवत् २०७७ में, कलियुग का ५१२१ वाँ वर्ष चल रहा है, और वर्त्तमान वर्ष  सहित कलियुग के ४,२६,८७९ वर्ष भोगने शेष हैं।    समय की यह गणना इस प्रकार है। एक सृष्टि काल में चौदह मन्वन्तर भोग के होते हैं। छह मन्वन्तर बीत चुके हैं, यह सातवां चल रहा है। प्रत्येक मन्वन्तर में इकहत्तर चतुर्युगियों का समय है। एक चतुर्युगी में चार युग हैं।    सतयुग में  ―  १७,२८,००० वर्ष त्रेतायुग में  ―  १२,९६,००० वर्ष द्वापरयुग में  ―  ८,६४,०० वर्ष कलियुग में  ―  ४,३२,००० वर्ष _________ एक चतुर्युगी में कुल ― ४३,२०,००० वर्ष वर्तमान सृष्टि संवत्― बीत चुके छह मन्वन्तर= ४३,२०,००० × ७१ × ६ = १,८४,०३,२०,००० वर्ष सातवें मन्वन्तर के बीते वर्ष सत्ताईस चतुर्युगियां = ४३,२०,००० × २७ = ११,६६,४०,००० वर्ष बीती अट्ठाईसवीं चतुर्युगी सतयुग 

ओ३म् -महात्मा हंसराज एवं महात्मा आनन्द स्वामी का धर्म रक्षा का उत्कृष्ट उदाहरण-

ओ३म् -महात्मा हंसराज एवं महात्मा आनन्द स्वामी का धर्म रक्षा का उत्कृष्ट उदाहरण- ‘मालाबार में मोपला हिंसा में पीड़ित हिन्दू बन्धुओं की रक्षा एवं पुनर्वास का आर्यसमाज का स्वर्णिम इतिहास’ =========== देश के इतिहास में सन् 1921 में केरल के मालाबार में एक गांव में मोपलाओं ने हिन्दू जनता पर अमानवीय क्रूर हिंसा की थी। इस पर अंग्रेजों को तो कोई आपत्ति नहीं थी न उन्होंने इसके अपराधियों पर कोई कार्यवाही की। अनुमान है कि इसे अंजाम देने में उनका गुप्त योगदान था। देश के प्रमुख राजनैतिक नेताओं ने भी इस अमानवीय घटना पर अपने मुंह बन्द रखे थे। इस घटना पर देशभक्त जीवित शहीद वीर सावरकर जी ने ‘मोपला’ नाम का प्रसिद्ध उपन्यास लिखा था। हिन्दू विरोधी इस कुकृत्य को जानने के लिए हिन्दू जनता द्वारा इस उपन्यास को अवश्य पढ़ा जाना चाहिये। मोपलाओं की हिन्दू विरोधी हिंसक घटनाओं का उल्लेख महात्मा आनन्द स्वामी जी की श्री सुनील शर्मा जी द्वारा लिखी जीवनी में भी आया है। यह भी बता दें कि महात्मा हंसराज जी और महात्मा आनन्द स्वामी जी का वैदिक धर्म एवं आर्यसमाज के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। महात्मा आनन्द स्वामी जी लाहौर स

गीता मे आतंकवाद नहीं है

गीता मे आतंकवाद नहीं है लेखक श्री विष्णु शर्मा पिछले भाग में यह स्पष्ट किया गया था कि महाभारत युद्ध में कौरवों का वध क्यों आवश्यक था किंतु अब प्रश्न यह उठता है कि तब परिस्थितियां भिन्न थी मगर अब यदि कोई सामान्य रूप से गीता का अध्ययन करेगा तो क्या उसके मन में युद्ध - हिंसा का विचार नहीं आएगा क्योंकि वहां लगातार युद्ध का उपदेश है ?? उत्तर - नहीं आएगा क्योंकि गीता में युद्ध को एक रूपक माना गया है। मुख्य रूप से गीता का प्रतिपाद्य विषय है कर्म। निठल्ले बैठे रहना गीता की नज़र में पाप है इसलिए निष्काम कर्म की विधि को विस्तार से समझाया गया है कि मन में कोई दुविधा न लाते हुए केवल अपना नियत कर्म करते रहें क्योंकि आपका नियत कर्म ही आपकी जीविका का साधन है - नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥ तू अपना नियत कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि अकर्म की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ है तथा अकर्म से तो तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा । (गीता - 3/8) क्योंकि अर्जुन क्षत्रिय था इसलिए आततायियों को मारना उसका नियत कर्म था बिल्कुल वैसे जैसे किसी आर्मी जवान का का

प्रोफेसर राममूर्ति नायडू

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प्रोफेसर राममूर्ति नायडू भारत के प्रसिद्ध पहलवान इनके करतबों को  देखकर ,सामान्यजन से लेकर ब्रिटिश शासन तक, दांतों तले उंगली दबा लेते थे । जिनका डंका लंदन के बकिंघम पैलेस तक बजता  था   ।  जानिए प्रोफेसर राममूर्ति नायडू के     बारे में जिनके नाम से राममूर्ति दंड - बैठक का नाम उनके नाम पर पड़ा। जिन्होंने अंग्रेज राज में भी ब्रिटिश महारानी को खुद को " इंडियन सेन्ड्रोस" पुकारे जाने पर साफ-साफ कह दिया कि मैं  कलयुगी भीम हूं । प्रोफेसर राममूर्ति नायडू भारत के अमूल्य रत्न थे। उनके बारे में वैदिक राष्ट्र यूट्यूब चैनल पर जानिए । वैदिक राष्ट्र को लाइक करिए।  वैदिक राष्ट्र को शेयर करिए।  वैदिक राष्ट्र को सब्सक्राइब करिए। धन्यवाद 9977987777 9977967777   samelan, marriage buero for all hindu cast, love marigge , intercast marriage , arranged marriage rajistertion call-9977987777, 9977957777, 9977967777or rajisterd free aryavivha.com/aryavivha app    

सत्संग महिमा

सत्संग महिमा कु० रविता आर्या सुपुत्री श्री ओ३म् आर्य सत्संग-सतां संग: सत्संग:, सद्मिर्वा संग: अर्थात् सज्जन पुरुषों का या सज्जन पुरुषों से संग-समागम करना चाहिए। उनके मनोहर उपदेश सुनना और उन पर आचरण कर ब्रह्मचर्यादि उत्तम व्रतों का पालन करना चाहिए। हमारे शास्त्र सत्संग की महिमा से भरे पड़े हैं। सज्जनों का संग करने से हमारे जीवन में पवित्रता आएगी, जिससे हम अपने वास्तविक उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सकेंगे। सत्संग की महिमा अपार है। किसी कवि ने कितना सुन्दर कहा है- चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा:। चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगति:।। अर्थात् संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है। चन्द्रमा की सौम्य किरणें तो उसको भी अधिक शीतलतर है। किन्तु चन्दन और चन्द्रमा से भी अधिक शीतलतम साधु-संगति=साधु महात्माओं का सत्संग है। अथर्ववेद में उत्तम और अधम पुरुषों के संग का वर्णन करते हुए बतलाया है- दूरे पूर्णेन वसति दूरे ऊनेन हीयते। महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तस्मै बलि राष्ट्रभृतो भरन्ति।। अर्थात् उत्तम के साथ रहने से (दूरे वसति) सामान्य जनों से दूर रहता है। (ऊनेन) हीन के साथ रहने से भी (दूरे

महर्षि दयानन्दकृत ओंकार-अर्थ-अनुशीलन

महर्षि दयानन्दकृत ओंकार-अर्थ-अनुशीलन लेखक- प्रियांशु सेठ (वाराणसी) ईश्वर का निज नाम 'ओ३म्' है। इस नाम में ईश्वर के सम्पूर्ण स्वरूप का वर्णन है। यदि परमात्मा कहें तो इसके कहने से सब जीवों का अन्तर्यामी आत्मा इसी अर्थ का बोध होता है, न कि सर्वशक्ति, सर्वज्ञान आदि गुणों का। सर्वज्ञ कहने से सर्वज्ञानी, सर्वशक्तिमान् कहने से ईश्वर सर्वशक्तियुक्त है, इन्हीं गुणों का बोध होता है, शेष गुण-कर्म-स्वभाव का नहीं। 'ओ३म्' नाम में ईश्वर के सर्व गुण-कर्म-स्वभाव प्रकट हो जाते हैं। जैसे एक छोटे-से बीज में सम्पूर्ण वृक्ष समाया होता है, वैसे ही 'ओ३म्' में ईश्वर के सर्वगुण प्रकट हो जाते हैं। महर्षि दयानन्दजी महाराज अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' के प्रथम समुल्लास में ओ३म् को "अ, उ, म्" इन तीन अक्षरों का समुदाय मानते हैं। स्वामीजी को अ से अकार, उ से उकार तथा म् से मकार अर्थ अभीष्ट है। इन शब्दों से उन्होंने परमात्मा के अलग-अलग नामों का ग्रहण किया है- अकार से विराट, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि। संस्कृ

पूर्व भारतीय "प्रधानमंत्री "स्वाभिमान के प्रतीक "लाल बहादुर शास्त्री " के बचपन का एक प्रेरक प्रसंग सुनिए। वैदिक राष्ट्र यूट्यूब चैनल पर ।

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अपनी  कठिन परिस्थितियों का सामना करके आगे कैसे बढ़ाया जाता है । कठिन परिस्थितियों में भी स्वाभिमानी बन कर रहा जा सकता है । ऐसे महान व्यक्तित्व के जीवन का प्रेरक प्रसंग ,जिसने भारत के प्रधानमंत्री बन कर भारत को स्वाभिमान का पाठ सिखाया । पूर्व भारतीय "प्रधानमंत्री "स्वाभिमान के प्रतीक "लाल बहादुर शास्त्री " के बचपन का एक प्रेरक प्रसंग सुनिए।  वैदिक राष्ट्र यूट्यूब चैनल पर । वैदिक राष्ट्र को लाइक कीजिए । वैदिक राष्ट्र को सब्सक्राइब कीजिए। वैदिक राष्ट्र को शेयर कीजिए । धन्यवाद 9977987777 9977967777    samelan, marriage buero for all hindu cast, love marigge , intercast marriage , arranged marriage rajistertion call-9977987777, 9977957777, 9977967777or rajisterd free aryavivha.com/aryavivha app            

तैंतीस कोटि देव

तैंतीस कोटि देव🌷     🌷भारतवर्ष में देवों का वर्णन बहुत रोचक है । देवों की संख्या तैंतीस करोड़ बतायी जाती है और इसमें नदी , पेड़ , पर्वत , पशु और पक्षी भी सम्मिलित कर लिये गये है । ऐसी स्तिथि में यह बहुत आवश्यक है कि शास्त्रों के वचन समझे जाएँ और वेदों की वास्तविक शिक्षाएँ ही जीवन में धारण की जाएँ ।     देव कौन ---- 'देव' शब्द के अनेक अर्थ हैं - " देवो दानाद् वा , दीपनाद् वा , द्योतनाद् वा , द्युस्थानो भवतीति वा । " ( निरुक्त - ७ / १५ ) तदनुसार 'देव' का लक्षण है 'दान' अर्थात देना । जो सबके हितार्थ अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु और प्राण भी दे दे , वह देव है । देव का गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना । सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि को प्रकाश करने के कारण देव कहते हैं । देव का कर्म है 'द्योतन' अर्थात सत्योपदेश करना । जो मनुष्य सत्य माने , सत्य बोले और सत्य ही करे , वह देव कहलाता है । देव की विशेषता है 'द्युस्थान' अर्थात ऊपर स्थित होना । ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को , समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को , और राष्ट्र में

“ऋषि दयानन्द जी का गुरु विरजानन्द से विद्या प्राप्ति का उद्देश्य व उसका परिणाम”

ओ३म् “ऋषि दयानन्द जी का गुरु विरजानन्द से विद्या प्राप्ति का उद्देश्य व उसका परिणाम” ============ ऋषि दयानन्द ने सच्चे शिव वा ईश्वर को जानने के लिए अपने पितृ गृह का त्याग किया था। इसके बाद वह धर्म ज्ञानियों व योगियों की तलाश कर उनसे ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसकी प्राप्ति के उपाय जानने में तत्पर हुए थे। देश के अनेक स्थानों पर वह इस उद्देश्य की पूर्ति में गये और अनेक विद्वानों, धर्म गुरुओं व योगियों के सम्पर्क में आये। जिनसे जो ज्ञान व क्रियात्मक योग का प्रशिक्षण उनको प्राप्त हो सकता था, वह उन्हें प्राप्त किया था। कालान्तर में वह धर्म गुरु व शीर्ष वैदिक विद्वान एवं सच्चे योगी बने। उनके समान ज्ञान प्राप्ति की अवस्था जो उन दिनों बड़े-बड़े धर्म गुरुओं की नहीं होती थी, वह उसे प्राप्त कर भी सन्तुष्ट नहीं हुए। उनमें विद्या की और अधिक वृद्धि की भावना बनी हुई थी। उनकी कुछ शंकायें भी रही होंगी जो वह समझते थे कि किसी सच्चे विद्वान गुरु को प्राप्त होने पर दूर हो जायेंगी। इस लिये वह सन् 1860 में मथुरा के दण्डी-स्वामी प्रज्ञा-चक्षु गुरु विरजानन्द सरस्वती जी को प्राप्त हुए। यहां आने से लगभग तीन वर्ष पह