गीता मे आतंकवाद नहीं है

गीता मे आतंकवाद नहीं है
लेखक श्री विष्णु शर्मा

पिछले भाग में यह स्पष्ट किया गया था कि महाभारत युद्ध में कौरवों का वध क्यों आवश्यक था किंतु अब प्रश्न यह उठता है कि तब परिस्थितियां भिन्न थी मगर अब यदि कोई सामान्य रूप से गीता का अध्ययन करेगा तो क्या उसके मन में युद्ध - हिंसा का विचार नहीं आएगा क्योंकि वहां लगातार युद्ध का उपदेश है ??

उत्तर - नहीं आएगा क्योंकि गीता में युद्ध को एक रूपक माना गया है। मुख्य रूप से गीता का प्रतिपाद्य विषय है कर्म। निठल्ले बैठे रहना गीता की नज़र में पाप है इसलिए निष्काम कर्म की विधि को विस्तार से समझाया गया है कि मन में कोई दुविधा न लाते हुए केवल अपना नियत कर्म करते रहें क्योंकि आपका नियत कर्म ही आपकी जीविका का साधन है -

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥

तू अपना नियत कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि अकर्म की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ है तथा अकर्म से तो तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा । (गीता - 3/8)

क्योंकि अर्जुन क्षत्रिय था इसलिए आततायियों को मारना उसका नियत कर्म था बिल्कुल वैसे जैसे किसी आर्मी जवान का काम सीमा पर देश की रक्षा का होता है या फिर जैसे किसी डॉक्टर का शल्यक्रिया ( ऑपरेशन) करना होता है।

वस्तुतः किसी भी इच्छा को पूरा करने के लिए युद्ध करने का आदेश गीता नहीं देती क्योंकि गीता की नज़र में भौतिक वस्तुओं से सुख मिलता ही नहीं और जो मिलता है वह देखने में तो अमृत लगता है किंतु वास्तव में वह ज़हर ही होता है -

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।।

जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता
है, वह पहले–भोगकालमें अमृतके तुल्य प्रतीत
होनेपर भी परिणाममें विषके तुल्य है; इसलिये
वह सुख राजस कहा गया है। ( गीता - 18/36)

स्वार्थ के लिए उत्पीड़न या हिंसा आदि करना गीता की दृष्टि में तामसी कार्य है -

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ।।

जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से, मन, वाणी और
शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरेका अनिष्ट
करने के लिये किया जाता है - वह तप तामस
कहा गया है॥ ( गीता - 17/19)

इस श्लोक में दो अति महत्वपूर्ण शब्द हैं - तप और तामसी जिनका अर्थ क्रमशः इस प्रकार है-

1. तप का अर्थ होता है कठिन परिश्रम ( hard work)

2. तामसी - तामसी शब्द का अर्थ है तम से सम्बन्ध रखने वाला और तम का शाब्दिक अर्थ है अंधकार
अतः तामसी का अर्थ हुआ अंधकारयुक्त कोई तत्व या कार्य

इस प्रकार इस श्लोक का मतलब है कि जो कठिन परिश्रम खुद को या दूसरों को नुकसान पहुंचाने या किसी का उत्पीड़न करने के लिए किया जाता है वह परिश्रम व्यक्ति को अंधेरे गर्त में पहुंचा देता है जिससे उसे न तो यश ही मिलता है और न शांति। उसे सारा का सारा समाज दुत्कारता है , कड़वे वचन बोलता है, बददुआएं देता है।

इसके उलट , गीता में यज्ञ करने को कहा गया है जिसमें सबका विकास निहित होता है -

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥

भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर। ( गीता - 3/9)

इस श्लोक में यज्ञ शब्द देखने लायक है। शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ का लक्षण इस प्रकार दिया गया है-
“यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म” अर्थात यज्ञ इस संसार में सबसे श्रेष्ठ कार्य है।

स्वयं गीता भी चार प्रकार के यज्ञों का विधान करती है -

1. द्रव्य यज्ञ - जब द्रव्य अर्थात धन को लोक कल्याण में लगाया जाता है तब वह द्रव्य यज्ञ कहलाता है जैसे - अपने धन के द्वारा कुएं खुदवाना , विद्यालय अस्पताल आदि बनवाना, किसी की भूख मिटाना इत्यादि इत्यादि।

2. तपोयज्ञ - जब कोई अपने लक्ष्य के लिए पूरी तरह समर्पित हो जाता है और लक्ष्य के मार्ग में आने आनी वाली बाधाओं को सहन करना सीख जाता है तब उसकी ये लगन तपोयज्ञ कहलाती है।

3. योगयज्ञ -  जब कोई सफलता या असफलता को एक समान मानने लगता है या जब कोई अपने सुख दुख को खुद के ऊपर हावी नहीं होता तो उसकी यह क्रिया ' योग' कहलाती है जिसका लक्षण गीता में ही है -

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है।

इसी योग का पालन करना योगयज्ञ है।

4. ज्ञानयज्ञ - ज्ञान का तात्पर्य अच्छे बुरे की पहचान से है जोकि विद्या द्वारा ही संभव है इसलिए स्वाध्याय, वेद उपनिषद शास्त्रों का अध्ययन और निःशुल्क विद्या दान ज्ञानयज्ञ है।

गीता के अतिरिक्त मनु स्मृति में भी पांच तरह के यज्ञ बताए गए हैं -

1.ब्रह्मयज्ञ - ब्रह्म यज्ञ तात्पर्य है अन्य लोगों को ज्ञान बांटना, उनमें उचित अनुचित का विवेक जगाना, उन्हें आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करना आदि ।

2. पितृ यज्ञ - अपने बड़ो के उचित आदेश को मानना , वृद्धजनों की सेवा करना, उनके प्रति आभार मानना, पूर्वजों या वृद्धों के शुभ कार्यों का अनुसरण करना इत्यादि पितृयज्ञ कहलाता है।

3. देवयज्ञ - देवयज्ञ का मतलब देवों के लिए किया जाने वाले हवन से है। सूर्य चन्द्र अग्नि जल आकाश आदि तत्व जीने में हमारी सहायता करते हैं इसलिए ये देव भी कहलाते हैं। अग्नि द्वारा इन्हें हवि देना देवयज्ञ है।

4. भूतयज्ञ - भूत का अर्थ यहां जीवित प्राणियों से है। अपने भोजन का कुछ भाग अन्य प्राणियों को देना भूतयज्ञ कहलाता है।मनुस्मृति में कहा गया है कुत्ता, गरीब, चांडाल, कुष्ठरोगी, कौओं, चींटी व कीड़ों आदि के लिए अन्न को बर्तन से निकालकर कर साफ जगह पर रखने के बाद दान दे देना चाहिए। यही भूत यज्ञ कहा जाता है।

5. अतिथि यज्ञ - इस यज्ञ में ' अतिथि देवो भव' की भावना चरितार्थ होती है। घर आए अतिथि का आदर सत्कार करना , उसे अन्न जल आदि से तृप्त करना अतिथि यज्ञ कहलाता है।

इस प्रकार यज्ञ शब्द में सम्पूर्ण शुभ कार्य आ जाते हैं।

इन सबसे बढ़कर गीता बिना बुद्धि का उपयोग किये गए कार्य को गलत मानती है। गीता के अनुसार किसी शास्त्र को अमल में लाने से पहले अच्छी तरह से सोच विचार कर लेना चाहिए। बिना सोचे समझे किसी की भी बात नहीं चाहिए चाहे वो व्यक्ति अथवा शास्त्र कितना भी लोकप्रिय या किसी भी समुदाय का आदर्श ही क्यों न हो -

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।

इस प्रकार समस्त गोपनीयों से अधिक गुह्य ज्ञान मैंने तुमसे कहा इस पर पूर्ण विचार (विमृश्य) करने के पश्चात् तुम्हारी जैसी इच्छा हो , वैसा ही तुम करो। ( गीता - 18/63)

इस प्रकार गीता की विषयवस्तु से भी जिहाद को समर्थन नहीं मिलता।
    
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