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ध्यान संध्या करना ही ईश्वर की सच्ची उपासना है -

ध्यान संध्या करना ही ईश्वर की सच्ची उपासना है - भगवान कण कण में है परन्तु कण कण भगवान नहीं है । मूर्ति को भगवान मान कर पूजते हो तो तो घर में पड़ी मेज कुर्सी को भगवान मान कर क्यों नहीं पूजते ? उनको भोग क्यों नहीं लगाते ? घासफूस, मलमूत्र आदि में भी भगवान है उनको क्यों नहीं पूजते ? कुछ लोग कुतर्क करते हैं कि मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले अपने माता पिता की फोटो पर थूक कर दिखायें । ऐसे लोगों को इतनी भी समझ नहीं कि कहीं भी थूकना मूर्खता है, असभ्यता है । माता पिता व महापुरषों के चित्र मात्र स्मृति चिह्न हैं, उनको घरों में लगाने का इतना ही उद्देश्य है कि उनके जीवन से हमें प्रेरणा मिलती रहे । यदि कोई उनको भगवान मान कर भोग लगायेगा, सुबह शाम उनकी आरती उतारेगा, उनमें प्राण प्रतिष्ठा का ढोंग करेगा तो वह मूर्ख है । माता पिता व महापुरुषों के चित्र तो वास्तविक हैं परन्तु तुम्हारे देवी देवताओं व भगवानों के चित्र तो काल्पनिक हैं । कण कण में व्याप्त परमात्मा का तो कोई चित्र वा कोई मूर्ति हो ही नहीं सकती । चार मुख वाला ब्रह्मा, हाथी के सिर वाला गणेश, अजीब से शक्ल वाला महाकाल, भग लिंग का प्रतीक शिवलिंग

गुरु ग्रन्थ साहब बनाम वेद -

गुरु ग्रन्थ साहब बनाम वेद - ................................... 1.ओंकार वेद निरमए (राग रामकली महला १,ओंकार शब्द १)        अर्थात् ओंकार ईश्वर ने वेद बनाए । 2. हरि आज्ञा होए, वेद पाप पुन्न विचारिआ( मारू डखणे, महला 5, शब्द-१) अर्थात् ईश्वर की आज्ञा से वेद हुए जिससे मनुष्य पाप-पुण्य का विचार कर सके। 3.सामवेद, ऋग जजुर अथर्वण. ब्रह्मे मुख माइया है त्रैगुण. ताकी कीमत कीत,कह न सकै को तिउ बोलै जिउ बोलाइदा(. – मारू सोलहे महला-१, शब्द-१७) अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद परमात्मा की वाणी है. इनकी कीमत कोई नहीं बता सकता. वे अमूल्य और अनन्त हैं। 4. ओंकार उत्पाती. किया दिवस सभ राती वन तृण त्रिभवन पाणी.चार वेद चारे खानी (राग मारू महला-5, शब्द-१७) अर्थात् ओंकार (परमात्मा) ने ही दिन-रात, वन, घास, तीनों लोक, पानी आदि को बनाया और उसी ने चारों वेदों को बनाया, जो चार खानों (कोषों) के समान हैं। 5. वेद बखान कहहि इक कहिये. ओह बेअन्त अन्त किन् लहिये । दिवा तले अँधेरा जाई. वेदपाठ मति पापा खाई.उगवै सूर न जापै चन्द, जहाँ ज्ञान प्रकाश अज्ञान मिटन्त.(वसन्त अष्टपदियाँ महला-१, अ.३) अर्थात् वेद स

हिन्दू नरसंहार की स्मृतियाँ

हिन्दू नरसंहार की स्मृतियाँ 1981 में   डॉ मैरी विठ्ठिल Dr. Mary Vithithil केरल की मलयालम पत्रिका शब्दधाम नामक पत्रिका की सम्पादिका मालाबार गई और 1921 के हिंदू नरसंहार में भाग लेने वाले कई  लोगों का साक्षात्कार लिया। उन्होंने श्रृंखला का शीर्षक दिया, "मोपला लाहला का एक उदासीन स्मरण। "... (“A nostalgic remembrance of the Mopallah Lahala”). उन्ही दंगाइयों  में से एक  साक्षात्कार उन्होंने 81 साल के अब्दुल्ला कुट्टी के साथ किया था। ये उसके शब्द हैं ...। “जब दंगे शुरू हुए तो हमारे बीच बहुत उत्साह था। रोज हम सड़कों पर खड़े होकर दंगाइयों के आने और उनके साथ आने का इंतजार करते। हम उनके साथ गए लेकिन हमने किसी को नहीं मारा दंगाइयों ने करिपथ इलम (ब्राह्मण घर) Karipath Illam( Brahmin House) पर हमला किया और सभी निवासियों को मार डाला। उन्होंने सारी दौलत ले ली और फिर उस इल्म को एक ऐसी जगह में बदल दिया, जहां असहाय हिंदुओं को लाया जाता था और जबरदस्ती धर्मांतरण या हत्या कर दी जाती थी। हमने मांस पकाया और उन्हें बलपूर्वक खिलाया .. इस की गंध के कारण उनको कई दिन तक उल्टी हुई । इस तरह के ल

एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर ही सबका उपासनीय है”

“एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर ही सबका उपासनीय है” ========== हम इस सृष्टि में रहते हैं। हमारा जन्म यद्यपि माता-पिता से हुआ है परन्तु हमारे शरीर को बनाने वाला तथा इसका पोषण करने वाला परमात्मा है। वह परमात्मा कहां है, कैसा है, उसकी शक्ति कितनी है, उसका ज्ञान कितना है, उसका आकार कैसा है तथा उसकी उत्पत्ति कब व कैसे हुई, यह ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर हमें ज्ञात होना चाहिये। उनका सही उत्तर केवल चार वेद एवं वैदिक साहित्य में ही मिलता है। वेद बताते हैं कि ईश्वर का स्वरूप सत्य, चेतन व आनन्द से युक्त है। उसका आकार निराकार है अर्थात् उसका किसी प्रकार का आकार व आकृति नहीं है। वह बिना आकार वाला है। उसका चित्र अथवा मूर्ति नहीं बनाई जा सकती। यदि बनायेंगे तो वह अनुमानित व काल्पनिक होगी। वेदों में ईश्वर को निराकार बताया गया है। यजुर्वेद में कहा गया है कि ‘ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्’ अर्थात् ईश्वर जगत के कण कण में व्यापक है। जिस वस्तु का कहीं कोई ओर और छोर न हो, जो आंखों से दिखाई न दे, उसका आकार व आकृति नहीं होती। ईश्वर कहां रहता है? इस प्रश्

मनुस्मृति में शूद्रों की स्थिति

मनुस्मृति में शूद्रों की स्थिति अमरीका में जॉर्ज फ्लॉयड सम्बन्धित विवाद में कुछ स्वघोषित दलित विचारक बचकाने बयान दे रहे हैं। वे कह रहे है कि जैसे अमरीका के ब्रिस्टोल में प्रदर्शनकारियों ने गुलामों का व्यापार करने वाले एडवर्ड कोलस्टोन की मूर्ति को तोड़ दिया उसी प्रकार से जयपुर के हाई कोर्ट में स्थापित महर्षि मनु की प्रतिमा को भी हटाया जाये। इन बयानों का उद्देश्य समाज विशेष के एक वर्ग को भड़काकर उन्हें राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करना होता हैं। आप पिछले 40 वर्षों की दलित राजनीती को उठाकर देख लीजिये। हर दलित नेता आज करोड़ों के बंगलों में रहता है और महंगी गाड़ियों में चलता हैं। जबकि मनुवाद, ब्राह्मणवाद के नाम पर भड़काए हुए उसको वोट करने वाले आज भी वही एक कमरे के मकान में निर्धनता में जी रहे हैं। प्रसिद्द वैदिक विद्वान और पूर्व उपकुलपति कांगड़ी विश्वविद्यालय डॉ सुरेंदर कुमार ने स्वामी दयानन्द की मान्यता के अनुसार मनुस्मृति में प्रक्षेप अर्थात मिलावटी श्लोकों को सप्रमाण चिन्हित कर मनुस्मृति सम्बंधित भ्रांतियों का समाधान किया हैं। उसे स्वीकार न कर रात-दिन केवल मनुवाद-ब्राह्मणवाद चिल्लाना क

◆ इस्लाम में स्वतंत्र चिंतन की मांग

◆ इस्लाम में स्वतंत्र चिंतन की मांग हैरिस सुलतान की पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड:  ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’  में वैज्ञानिक तर्कों से इस्लामी विचारों और परंपराओं की समालोचना है। उन की पड़ताल के बिन्दु हैं – 1. क्या अल्लाह के होने का कोई सबूत है?  2. क्या इस्लाम में बताई गई नैतिकता अच्छी है?  3. क्या इस्लाम में दी गई जानकारियाँ सही हैं ? उन्होंने पाया कि अल्लाह की तमाम बातों से तो बच्चे जैसी वह मानसिकता मालूम होती है, जो मामूली बात पर भी रूठने, चिल्लाने, धमकी देने लगता हो: ‘मेरी पूजा करो, वरना मार डालूँगा’! उस में अपना अस्तित्व दिखा सकने की भी क्षमता या बुद्धि नहीं है। अल्लाह छिपा हुआ है, मगर शिकायत करता है कि हम उसे नहीं मानते। फिर इस गॉड, यहोवा या अल्लाह ने अपने संदेशवाहक (प्रॉफेट) को एक नामालूम से अरब क्षेत्र में ही क्यों भेजे? बड़े-बड़े इलाकों अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन, आदि में रहने वाले करोड़ों लोगों को संदेश देना क्यों नहीं सूझा? इन महाद्वीपों ने तो सदियों तक मुहम्मद का नाम भी नहीं सुना। तब उन करोडों निर्दोष लोगों को अल्लाह ने अपने संदेश से वंचित, और इस प्रकार, इस्लाम न मानने से जहन्नु

ईसाई मत की मान्यताएँ: तर्क की कसौटी पर

ईसाई मत की मान्यताएँ: तर्क की कसौटी पर ऊपर से देखने पर ईसाई मत एक सभ्य,सुशिक्षित,शांतिप्रिय समाज लगता हैं। जिसका उद्देश्य ईसा मसीह की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार एवं निर्धनों, दीनों की सेवा-सहायता करना हैं। इस मान्यता का कारण ईसाई समाज द्वारा बनाई गई छवि है। यह कटु सत्य है कि ईसाई मिशनरी विश्व के जिस किसी देश में गए। उस देश के निवासियों के मूल धर्म में सदा खामियों को प्रचारित करना एवं अपने मत को बड़ा चढ़ाकर पेश करना ईसाईयों की सुनियोजित नीति रही हैं। इस नीति के बल पर वे अपने आपको श्रेष्ठ एवं सभ्य तथा दूसरों को निकृष्ट एवं असभ्य सिद्ध करते रहे हैं। इस लेख के माध्यम से हम ईसाई मत की तीन सबसे प्रसिद्द मान्यताओं की समीक्षा करेंगे जिससे पाठकों के भ्रम का निवारण हो जाये। 1. प्रार्थना से चंगाई 2. पापों का क्षमा होना 3. गैर ईसाईयों को ईसाई मत में धर्मान्तरित करना 1. प्रार्थना से चंगाई[i] ईसाई समाज में ईसा मसीह अथवा चर्च द्वारा घोषित किसी भी संत की प्रार्थना करने से बिमारियों का ठीक होने की मान्यता पर अत्यधिक बल दिया जाता हैं। आप किसी भी ईसाई पत्रिका, किसी भी गिरिजाघर की दीवारों आदि मे

वैदिक धर्म अतुलनीय

वैदिक धर्म अतुलनीय -स्व० चौधरी चरण सिंह (भू० पूर्व प्रधानमन्त्री, भारत सरकार) मैं जहां राजनीतिक क्षेत्र में महात्मा गांधी को अपना गुरु या प्रेरक मानता हूं, वहां धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में मुझे सबसे अधिक प्रेरणा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने दी। इन दोनों विभूतियों से प्रेरणा प्राप्त कर मैंने धार्मिक व राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण किया था। एक ओर आर्य समाज के मंच से हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध मैं सक्रिय रहा, वहीं कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में भारत की स्वाधीनता के यज्ञ में मैंने यथाशक्ति आहुतियां डालने का प्रयास किया। मंगलाचरण स्वदेशी, स्वभाषा व स्वधर्म का गौरव छात्र जीवन में, लगभग १९-२० वर्ष की आयु में स्वामी सत्यानन्द लिखित महर्षि दयानन्द सरस्वती की जीवनी पढ़ी। मुझे लगा कि बहुत समय बाद भारत में सम्पूर्ण मानव गुणों से युक्त एक तेजस्वी विभूति महर्षि के रूप में प्रकट हुई है। उनके जीवन की एक-एक घटना ने मुझे प्रभावित किया, प्रेरणा दी। स्वधर्म (वैदिक धर्म), स्वभाषा, स्वराष्ट्र, सादगी, सभी भावनाओं से ओत-प्रोत था महर्षि का जीवन। राष्ट्रीयता की भावनाएं तो जैसे उनकी रग-र

मुस्लिम तुष्टिकरण , महात्मा गांधी और भारतीय राजनीति

मुस्लिम तुष्टिकरण , महात्मा गांधी और भारतीय राजनीति डॉ विवेक आर्य 1921 में गाँधी ने अंग्रेजी कपड़ों के बहिष्कार का ऐलान किया। उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाने का निर्णय लिया। स्वामी श्रद्धानन्द को जब यह पता चला तो उन्होंने महात्मा गाँधी को तार भेजा। उसमें उन्होंने गाँधी जी से कहा कि आप विदेशी कपड़ों को जलाकर अंग्रेजों के प्रति शत्रुभाव को बढ़ावा न दे। आप उन कपड़ों को जलाने के स्थान पर निर्धन और नग्न गरीबों में बाँट दे। स्वामी जी की सलाह को दरकार कर सी.आर.दास और नेहरू ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई। जबकि खिलाफत आंदोलन से जुड़े मुसलमानों ने गाँधी जी से कपड़ों को तुर्की की पीड़ित जनता को भेजने की अनुमति प्राप्त कर ली। स्वामी जी के लिए यह एक सदमे जैसा था। हिन्दुओं के मुद्दों पर स्वामी जी पहाड़ के समान अडिग और सिद्धांतवादी बन जाते थे। जबकि मुसलमानों के लिए उनके हृदय में सदा कोमल स्थान उपलब्ध रहता था।स्वामी जी लिखते है कि मैं कभी अपने जीवन में यह समझ नहीं पाया कि अपने देश के लाखों गरीबों को अपनी नग्नता छुपाने देने के स्थान पर कपड़ों को सुदूर दूसरे देश तुर्की भेजने में कौनसी नैतिकता है। 1920-1

आर्यसमाज और महात्मा गांधी

आर्यसमाज और महात्मा गांधी लेखक- पं० चमूपति जी प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ सहयोगी- डॉ विवेक आर्य (आर्यजगत के सुविख्यात विद्वान् पं० चमूपति जी के बलिदान दिवस पर, आज १५ जून को प्रकाशित यह लेख) 'यंग इंडिया' में प्रकाशित महात्मा गांधी के लेख का वह अंश जिसमें ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का उल्लेख है, यहां उद्धृत किया जा रहा है। इसे देखते ही पाठकों को अवगत हो जाएगा कि महात्माजी को निम्नलिखित विषयों पर एतराज है- १. स्वामी श्रद्धानन्द के व्याख्यानों पर और उनके इस विश्वास पर कि हर एक मुसलमान आर्य बनाया जा सकता है। २. स्वामी श्रद्धानन्द जी की जल्दबाजी और शीघ्र रुष्ट हो जाने की प्रकृति पर जो उन्हें आर्यसमाज से दायभाग में मिली है। ३. स्वामी दयानन्द की शिक्षा पर जिन्होंने भूमण्डल के एक विशाल और उदारतम धर्म को संकुचित बना दिया है और अनजाने जैन धर्म, इस्लाम, ईसाई मत और खुद हिन्दू धर्म की मिथ्या व्याख्या की है। ४. सत्यार्थप्रकाश पर, जो एक सुधारक की निराशाजनक कृति है। ५. वेदों के अक्षरशः सत्य माने जाने और सम्पूर्ण विद्याओं का कोष होने पर, जिसे वे एक सूक्ष्म प्रकार की मूर्तिपूजा मानते