ईसाई मत की मान्यताएँ: तर्क की कसौटी पर

ईसाई मत की मान्यताएँ: तर्क की कसौटी पर

ऊपर से देखने पर ईसाई मत एक सभ्य,सुशिक्षित,शांतिप्रिय समाज लगता हैं। जिसका उद्देश्य ईसा मसीह की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार एवं निर्धनों, दीनों की सेवा-सहायता करना हैं। इस मान्यता का कारण ईसाई समाज द्वारा बनाई गई छवि है। यह कटु सत्य है कि ईसाई मिशनरी विश्व के जिस किसी देश में गए। उस देश के निवासियों के मूल धर्म में सदा खामियों को प्रचारित करना एवं अपने मत को बड़ा चढ़ाकर पेश करना ईसाईयों की सुनियोजित नीति रही हैं। इस नीति के बल पर वे अपने आपको श्रेष्ठ एवं सभ्य तथा दूसरों को निकृष्ट एवं असभ्य सिद्ध करते रहे हैं। इस लेख के माध्यम से हम ईसाई मत की तीन सबसे प्रसिद्द मान्यताओं की समीक्षा करेंगे जिससे पाठकों के भ्रम का निवारण हो जाये।

1. प्रार्थना से चंगाई

2. पापों का क्षमा होना

3. गैर ईसाईयों को ईसाई मत में धर्मान्तरित करना

1. प्रार्थना से चंगाई[i]

ईसाई समाज में ईसा मसीह अथवा चर्च द्वारा घोषित किसी भी संत की प्रार्थना करने से बिमारियों का ठीक होने की मान्यता पर अत्यधिक बल दिया जाता हैं। आप किसी भी ईसाई पत्रिका, किसी भी गिरिजाघर की दीवारों आदि में जाकर ऐसे विवरण (Testimonials) देख सकते हैं। आपको दिखाया जायेगा की एक गरीब आदमी था। जो वर्षों से किसी लाईलाज बीमारी से पीड़ित था। बहुत उपचार करवाया मगर बीमारी ठीक नहीं हुई। अंत में प्रभु ईशु अथवा मरियम अथवा किसी ईसाई संत की प्रार्थना से चमत्कार हुआ। और उसकी यह बीमारी सदा सदा के लिए ठीक हो गई। सबसे अधिक निर्धनों और गैर ईसाईयों को प्रार्थना से चंगा होता दिखाया जाता हैं। यह चमत्कार की दुकान सदा चलती रहे इसलिए समय समय पर अनेक ईसाईयों को मृत्यु उपरांत संत घोषित किया जाता हैं। हाल ही में भारत से मदर टेरेसा और सिस्टर अलफोंसो को संत घोषित किया गया हैं और विदेश में दिवंगत पोप जॉन पॉल को संत घोषित किया गया है। यह संत बनाने की प्रक्रिया भी सुनियोजीत होती हैं। पहले किसी गरीब व्यक्ति का चयन किया जाता हैं जिसके पास इलाज करवाने के लिए पैसे नहीं होते।

प्रार्थना से चंगाई में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा खुद विदेश जाकर तीन बार आँखों एवं दिल की शल्य चिकित्सा करवा चुकी थी[ii]। संभवत हिन्दुओं को प्रार्थना का सन्देश देने वाली मदर टेरेसा को क्या उनको प्रभु ईसा मसीह अथवा अन्य ईसाई संतो की प्रार्थना द्वारा चंगा होने का विश्वास नहीं था जो वे शल्य चिकित्सा करवाने विदेश जाती थी?

सिस्टर अलफोंसो केरल की रहने वाली थी। अपनीअपने जीवन के तीन दशकों में से करीब 20 वर्ष तक अनेक रोगों से ग्रस्त रही थी[iii]। केरल एवं दक्षिण भारत में निर्धन हिन्दुओं को ईसाई बनाने की प्रक्रिया को गति देने के लिए संभवत उन्हें भी संत का दर्जा दे दिया गया और यह प्रचारित कर दिया गया की उनकी प्रार्थना से भी चंगाई हो जाती हैं।

दिवंगत पोप जॉन पॉल स्वयं पार्किन्सन रोग से पीड़ित थे और चलने फिरने से भी असमर्थ थे। यहाँ तक की उन्होंने अपना पद अपनी बीमारी के चलते छोड़ा था[iv]। कोस्टा रिका की एक महिला के मस्तिष्क की व्याधि जिसका ईलाज करने से चिकित्सकों ने मना कर दिया था। वह पोप जॉन पॉल के चमत्कार से ठीक हो गई। इस चमत्कार के चलते उन्हें भी चर्च द्वारा संत का दर्ज दिया गया हैं।

पाठक देखेगे की तीनों के मध्य एक समानता थी। जीवन भर ये तीनों अनेक बिमारियों से पीड़ित रहे थे। मरने के बाद अन्यों की बीमारियां ठीक करने का चमत्कार करने लगे। अपने मंच से कैंसर, एड्स जैसे रोगों को ठीक करने का दावा करने वाले बैनी हिन्न (Benny Hinn) नामक प्रसिद्द ईसाई प्रचारक हाल ही में अपने दिल की बीमारी के चलते ईलाज के लिए अस्पताल में भर्ती हुए थे[v]। वह atrial fibrillation नामक दिल के रोग से पिछले 20 वर्षों से पीड़ित है। तर्क और विज्ञान की कसौटी पर प्रार्थना से चंगाई का कोई अस्तित्व नहीं हैं। अपने आपको आधुनिक एवं सभ्य दिखाने वाला ईसाई समाज प्रार्थना से चंगाई जैसी रूढ़िवादी एवं अवैज्ञानिक सोच में विश्वास रखता हैं। यह केवल मात्र अंधविश्वास नहीं अपितु एक षड़यंत्र है। गरीब गैर ईसाईयों को प्रभावित कर उनका धर्म परिवर्तन करने की सुनियोजित साजिश हैं।

2. पापों का क्षमा होना

ईसाई मत की दूसरी सबसे प्रसिद्द मान्यता है पापों का क्षमा होना। इस मान्यता के अनुसार कोई भी व्यक्ति कितना भी बड़ा पापी हो। उसने जीवन में कितने भी पाप किये हो। अगर वो प्रभु ईशु मसीह की शरण में आता है तो ईशु उसके सम्पूर्ण पापों को क्षमा कर देते है। यह मान्यता व्यवहारिकता,तर्क और सत्यता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। व्यवहारिक रूप से आप देखेगे कि संसार में सभी ईसाई देशों में किसी भी अपराध के लिए दंड व्यवस्था का प्रावधान हैं। क्यों? कोई ईसाई मत में विश्वास रखने वाला अपराधी अपराध करे तो उसे चर्च ले जाकर उसके पाप स्वीकार (confess) करवा दिए जाये। स्वीकार करने पर उसे छोड़ दिया जाये। इसका क्या परिणाम निकलेगा? अगले दिन वही अपराधी और बड़ा अपराध करेगा क्यूंकि उसे मालूम है कि उसके सभी पाप क्षमा हो जायेगे। अगर समाज में पापों को इस प्रकार से क्षमा करने लग जाये तो उसका अंतिम परिणाम क्या होगा? जरा विचार करे।

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश[vi] में ईश्वर द्वारा अपने भक्तों के पाप क्षमा होने पर ज्ञानवर्धक एवं तर्कपूर्ण उत्तर दिया हैं। स्वामी जी लिखते है। - "नहीं, ईश्वर किसी के पाप क्षमा नहीं करता। क्योंकि जो ईश्वर पाप क्षमा करे तो उस का न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। इसलिए कि क्षमा की बात सुन कर ही पाप करने वालों को पाप करने में निभर्यता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा यदि अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उन को भी भरोसा हो जायेगा कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते, वे भी अपराध करने में न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं"।

वैदिक विचारधारा में ईश्वर को न्यायकारी एवं दयालु बताया गया हैं। परमेश्वर न्यायकारी है,क्यूंकि ईश्वर जीव के कर्मों के अनुपात से ही उनका फल देता है कम या ज्यादा नहीं। परमेश्वर दयालु है, क्यूंकि कर्मों का फल देने की व्यवस्था इस प्रकार की है जिससे जीव का हित हो सके। शुभ कर्मों का अच्छा फल देने में भी जीव का कल्याण है और अशुभ कर्मों का दंड देने में भी जीव का ही कल्याण है। दया का अर्थ है जीव का हित चिंतन और न्याय का अर्थ है, उस हितचिंतन की ऐसी व्यवस्था करना कि उसमें तनिक भी न्यूनता या अधिकता न हो।

ईसाई मत में प्रचलित पापों को क्षमा करना ईश्वर के न्यायप्रियता और दयालुता गुण के विपरीत हैं। अव्यवहारिक एवं असंगत होने के कारण अन्धविश्वास मात्र हैं।

3. गैर ईसाईयों को ईसाई मत में धर्मान्तरित करना

ईसाई मत को मानने वालो में गैर ईसाईयों को ईसाई मत में धर्मान्तरित कर शामिल करने की सदा चेष्टा बनी रहती हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता हैं कि जैसे वही ईसाई सच्चा ईसाई तभी माना जायेगा जो गैर ईसाईयों को ईसाई नहीं बना लेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि ईसाईयों में आचरण और पवित्र व्यवहार से अधिक धर्मान्तरण महत्वपूर्ण हो चला हैं। धर्मांतरण के लिए ईसाई समाज हिंसा करने से भी भी पीछे नहीं हटता। अपनी बात को मैं उदहारण देकर सिद्ध करना चाहता हूँ। ईसाई प्रभुत्व वाले पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम से वैष्णव हिन्दू रीति को मानने वाली रियांग जनजाति को धर्मान्तरण कर ईसाई न बनने पर चर्च द्वारा समर्थित असामाजिक लोगों ने हिंसा द्वारा राज्य से निकाल दिया[vii]। हिंसा के चलते रियांग लोग दूसरे राज्यों में शरणार्थी के रूप में रहने को बाधित हैं। सरकार द्वारा बनाई गई नियोगी कमेटी के ईसाईयों द्वारा धर्मांतरण के लिए अपनाये गए प्रावधानों को पढ़कर धर्मान्तरण के इस कुचक्र का पता चलता हैं[viii]। चर्च समर्थित धर्मान्तरण एक ऐसा कार्य हैं जिससे देश की अखंडता और एकता को बाधा पहुँचती हैं।

इसीलिए हमारे देश के संभवत शायद ही कोई चिंतक ऐसे हुए हो जिन्होंने प्रलोभन द्वारा धर्मान्तरण करने की निंदा न की हो। महान चिंतक एवं समाज सुधारक स्वामी दयानंद का एक ईसाई पादरी से शास्त्रार्थ हो रहा था। स्वामी जी ने पादरी से कहा की हिन्दुओं का धर्मांतरण करने के तीन तरीके है। पहला जैसा मुसलमानों के राज में गर्दन पर तलवार रखकर जोर जबरदस्ती से बनाया जाता था। दूसरा बाढ़, भूकम्प, प्लेग आदि प्राकृतिक आपदा जिसमें हज़ारों लोग निराश्रित होकर ईसाईयों द्वारा संचालित अनाथाश्रम एवं विधवाश्रम आदि में लोभ-प्रलोभन के चलते भर्ती हो जाते थे और इस कारण से आप लोग प्राकृतिक आपदाओं के देश पर बार बार आने की अपने ईश्वर से प्रार्थना करते है और तीसरा बाइबिल की शिक्षाओं के जोर शोर से प्रचार-प्रसार करके। मेरे विचार से इन तीनों में सबसे उचित अंतिम तरीका मानता हूँ। स्वामी दयानंद की स्पष्टवादिता सुनकर पादरी के मुख से कोई शब्द न निकला। स्वामी जी ने कुछ ही पंक्तियों में धर्मान्तरण के पीछे की विकृत मानसिकता को उजागर कर दिया[ix]।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ईसाई धर्मान्तरण के सबसे बड़े आलोचको में से एक थे। अपनी आत्मकथा में महात्मा गांधी लिखते है "उन दिनों ईसाई मिशनरी हाई स्कूल के पास नुक्कड़ पर खड़े हो हिन्दुओं तथा देवी देवताओं पर गलियां उड़ेलते हुए अपने मत का प्रचार करते थे। यह भी सुना है की एक नया कन्वर्ट (मतांतरित) अपने पूर्वजों के धर्म को, उनके रहन-सहन को तथा उनके गलियां देने लगता है। इन सबसे मुझमें ईसाइयत के प्रति नापसंदगी पैदा हो गई।" इतना ही नहीं गांधी जी से मई, 1935 में एक ईसाई मिशनरी नर्स ने पूछा कि क्या आप मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगाना चाहते है तो जवाब में गांधी जी ने कहा था,' अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं मतांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूँ। मिशनरियों के प्रवेश से उन हिन्दू परिवारों में जहाँ मिशनरी पैठे है, वेशभूषा, रीतिरिवाज एवं खानपान तक में अंतर आ गया है[x]।

समाज सुधारक एवं देशभक्त लाला लाजपत राय द्वारा प्राकृतिक आपदाओं में अनाथ बच्चों एवं विधवा स्त्रियों को मिशनरी द्वारा धर्मान्तरित करने का पुरजोर विरोध किया गया जिसके कारण यह मामला अदालत तक पहुंच गया। ईसाई मिशनरी द्वारा किये गए कोर्ट केस में लाला जी की विजय हुई एवं एक आयोग के माध्यम से लाला जी ने यह प्रस्ताव पास करवाया की जब तक कोई भी स्थानीय संस्था निराश्रितों को आश्रय देने से मना न कर दे तब तक ईसाई मिशनरी उन्हें अपना नहीं सकती[xi]।

समाज सुधारक डॉ अम्बेडकर को ईसाई समाज द्वारा अनेक प्रलोभन ईसाई मत अपनाने के लिए दिए गए मगर यह जमीनी हकीकत से परिचित थे की ईसाई मत ग्रहण कर लेने से भी दलित समाज अपने मुलभुत अधिकारों से वंचित ही रहेगा। डॉ आंबेडकर का चिंतन कितना व्यवहारिक था यह आज देखने को मिलता है।''जनवरी 1988 में अपनी वार्षिक बैठक में तमिलनाडु के बिशपों ने इस बात पर ध्यान दिया कि धर्मांतरण के बाद भी अनुसूचित जाति के ईसाई परंपरागत अछूत प्रथा से उत्पन्न सामाजिक व शैक्षिक और आर्थिक अति पिछड़ेपन का शिकार बने हुए हैं। फरवरी 1988 में जारी एक भावपूर्ण पत्र में तमिलनाडु के कैथलिक बिशपों ने स्वीकार किया 'जातिगत विभेद और उनके परिणामस्वरूप होने वाला अन्याय और हिंसा ईसाई सामाजिक जीवन और व्यवहार में अब भी जारी है। हम इस स्थिति को जानते हैं और गहरी पीड़ा के साथ इसे स्वीकार करते हैं।' भारतीय चर्च अब यह स्वीकार करता है कि एक करोड़ 90 लाख भारतीय ईसाइयों का लगभग 60 प्रतिशत भाग भेदभावपूर्ण व्यवहार का शिकार है। उसके साथ दूसरे दर्जे के ईसाई जैसा अथवा उससे भी बुरा व्यवहार किया जाता है। दक्षिण में अनुसूचित जातियों से ईसाई बनने वालों को अपनी बस्तियों तथा गिरिजाघर दोनों जगह अलग रखा जाता है। उनकी 'चेरी' या बस्ती मुख्य बस्ती से कुछ दूरी पर होती है और दूसरों को उपलब्ध नागरिक सुविधओं से वंचित रखी जाती है। चर्च में उन्हें दाहिनी ओर अलग कर दिया जाता है। उपासना (सर्विस) के समय उन्हें पवित्र पाठ पढऩे की अथवा पादरी की सहायता करने की अनुमति नहीं होती। बपतिस्मा, दृढि़करण अथवा विवाह संस्कार के समय उनकी बारी सबसे बाद में आती है। नीची जातियों से ईसाई बनने वालों के विवाह और अंतिम संस्कार के जुलूस मुख्य बस्ती के मार्गों से नहीं गुजर सकते। अनुसूचित जातियों से ईसाई बनने वालों के कब्रिस्तान अलग हैं। उनके मृतकों के लिए गिरजाघर की घंटियां नहीं बजतीं, न ही अंतिम प्रार्थना के लिए पादरी मृतक के घर जाता है। अंतिम संस्कार के लिए शव को गिरजाघर के भीतर नहीं ले जाया जा सकता। स्पष्ट है कि 'उच्च जाति' और 'निम्न जाति' के ईसाइयों के बीच अंतर्विवाह नहीं होते और अंतर्भोज भी नगण्य हैं। उनके बीच झड़पें आम हैं। नीची जाति के ईसाई अपनी स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष छेड़ रहे हैं, गिरजाघर अनुकूल प्रतिक्रिया भी कर रहा है लेकिन अब तक कोई सार्थक बदलाव नहीं आया है। ऊंची जाति के ईसाइयों में भी जातिगत मूल याद किए जाते हैं और प्रछन्न रूप से ही सही लेकिन सामाजिक संबंधोंं में उनका रंग दिखाई देता है[xii]।
महान विचारक वीर सावरकर धर्मान्तरण को राष्ट्रान्तरण मानते थे। आप कहते थे "यदि कोई व्यक्ति धर्मान्तरण करके ईसाई या मुसलमान बन जाता है तो फिर उसकी आस्था भारत में न रहकर उस देश के तीर्थ स्थलों में हो जाती है जहाँ के धर्म में वह आस्था रखता है, इसलिए धर्मान्तरण यानी राष्ट्रान्तरण है।
इस प्रकार से प्राय: सभी देशभक्त नेता ईसाई धर्मान्तरण के विरोधी रहे है एवं उसे राष्ट्र एवं समाज के लिए हानिकारक मानते है।
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