सृष्टि―संवत्

    🌷 सृष्टि―संवत् 🌷

   वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है। वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें कलियुग का प्रथम चरण व्यतीत हो रहा है। अर्थात् इस सातवें मन्वन्तर की सत्ताईस चतुर्युगियां व्यतीत हो चुकी हैं। अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के सत, त्रेता, द्वापर युग बीत चुके हैं। कलियुग के ५१२१ वर्ष बीत चुके हैं, विक्रम संवत् २०७७ में, कलियुग का ५१२१ वाँ वर्ष चल रहा है, और वर्त्तमान वर्ष  सहित कलियुग के ४,२६,८७९ वर्ष भोगने शेष हैं।

   समय की यह गणना इस प्रकार है। एक सृष्टि काल में चौदह मन्वन्तर भोग के होते हैं। छह मन्वन्तर बीत चुके हैं, यह सातवां चल रहा है। प्रत्येक मन्वन्तर में इकहत्तर चतुर्युगियों का समय है। एक चतुर्युगी में चार युग हैं।

   सतयुग में  ―  १७,२८,००० वर्ष
त्रेतायुग में  ―  १२,९६,००० वर्ष
द्वापरयुग में  ―  ८,६४,०० वर्ष
कलियुग में  ―  ४,३२,००० वर्ष
_________
एक चतुर्युगी में कुल ― ४३,२०,००० वर्ष

वर्तमान सृष्टि संवत्―

बीत चुके छह मन्वन्तर=
४३,२०,००० × ७१ × ६ =
१,८४,०३,२०,००० वर्ष

सातवें मन्वन्तर के बीते वर्ष
सत्ताईस चतुर्युगियां = ४३,२०,००० × २७ =
११,६६,४०,००० वर्ष

बीती अट्ठाईसवीं चतुर्युगी
सतयुग  ―  १७,२८,०००
त्रेतायुग  ―  १२,९६,०००
द्वापरयुग  ―  ८,६४,०००
कलियुग  ―  ५१२०
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जोड़  ―   ३८,९३,१२० वर्ष

अत: कुल बीते वर्ष = १,९६,०८,५३,१२० वर्ष 

इस प्रकार अब १,९६,०८,५३,१२१ वां वर्ष बीत रहा है।

ऊपर बताए चौदह मन्वन्तर यानि १४×७१ =९९४ चतुर्युगी का समय सृष्टि में मनुष्यों का भोग काल है। वास्त१व में सृष्टि का काल एक हजार चतुर्युगी का है। शेष रही छह चतुर्युगी का समय सृष्टि की रचना और प्रलय  करने में व्यतीत होता है। प्रारम्भ के तीन चतुर्युग में सृष्टि रचना, सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है। अंत के तीन चतुर्युग में सभी प्राणियों का उल्टे क्रम में नाश होता है। अर्थात् सबसे पहले मनुष्य, फिर अन्य स्थलीय जीव, फिर अन्य जलीय और वायवीय प्राणी, फिर पेड़-पौधे नष्ट हो जाते हैं। यह १,००० चतुर्युगी का समय ब्राह्मदिन कहलाता है। इतना ही प्रलय में व्यतीत होता है अर्थात् सृष्टि नहीं रहती। उसे ब्राह्मरात्रि कहते हैं। इस प्रकार ब्राह्मदिन के पश्चात् ब्राह्मरात्रि और ब्राह्मरात्रि के पश्चात् ब्राह्मदिन निरन्तर चलते रहते हैं। यही क्रम सदा से चला आ रहा है।

अत: वर्तमान सृष्टि में मनुष्य को उत्पन्न हुए १,९६,०८,५३,१२१वां वर्ष चल रहा है। यही संवत् वेदोत्पत्ति का है अर्थात् इतने ही वर्ष वेदों को उत्पन्न हुए हो गए हैं। समय की यह गणना ज्योतिष शास्त्र (गणित) के अनुसार है।

[महर्षि दयानन्द रचित "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" के आधार पर]
 

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