तैंतीस कोटि देव

तैंतीस कोटि देव🌷

    🌷भारतवर्ष में देवों का वर्णन बहुत रोचक है । देवों की संख्या तैंतीस करोड़ बतायी जाती है और इसमें नदी , पेड़ , पर्वत , पशु और पक्षी भी सम्मिलित कर लिये गये है । ऐसी स्तिथि में यह बहुत आवश्यक है कि शास्त्रों के वचन समझे जाएँ और वेदों की वास्तविक शिक्षाएँ ही जीवन में धारण की जाएँ ।

    देव कौन ----
'देव' शब्द के अनेक अर्थ हैं - " देवो दानाद् वा , दीपनाद् वा , द्योतनाद् वा , द्युस्थानो भवतीति वा । " ( निरुक्त - ७ / १५ ) तदनुसार 'देव' का लक्षण है 'दान' अर्थात देना । जो सबके हितार्थ अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु और प्राण भी दे दे , वह देव है । देव का गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना । सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि को प्रकाश करने के कारण देव कहते हैं । देव का कर्म है 'द्योतन' अर्थात सत्योपदेश करना । जो मनुष्य सत्य माने , सत्य बोले और सत्य ही करे , वह देव कहलाता है । देव की विशेषता है 'द्युस्थान' अर्थात ऊपर स्थित होना । ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को , समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को , और राष्ट्र में ऊपर स्थित होने से राजा को भी देव कहते हैं । इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों के लिए होता है । हाँ , भाव और प्रयोजन के अनुसार अर्थ भिन्न - भिन्न होते हैं ।

    तैंतीस प्रकार ----
'कोटि' शब्द के दो अर्थ हैं - 'प्रकार' और 'करोड़' | विश्व में तैंतीस कोटि के देव अर्थात तैंतीस प्रकार के देव हैं , तैंतीस करोड़ नहीं । अथर्ववेद -१०/७/२७ में कहा गया है -- " यस्य त्रयस्त्रिंशद् देवा अङ्गे गात्रा विभेजिरे । तान् वै त्रयास्त्रिंशद् देवानेके ब्रह्मविदो विदुः ।। " अर्थात वेदज्ञ लोग जानते हैं कि तैंतीस प्रकार के देवता संसार का धारण और प्राणियों का पालन कर रहे हैं । इस प्रकार तैंतीस करोड़ देव कहना मिथ्या और भ्रामक है । वैदिक संस्कृति में तैंतीस कोटि के अर्थात तैंतीस प्रकार के अर्थात तैंतीस देव हैं | इनकी गणना निम्न प्रकार है --

   (१) यज्ञ एक देव है , क्योंकि इससे वर्षा होकर प्राणियों को सुख मिलता है । गीता -३/१४ में कहा गया है -- " अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद् भवः ।। " अर्थात प्राणी अन्न से , अन्न बादल से और बादल यज्ञ से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार यज्ञ प्राणियों के जीवन और सुख का आधार है ।

   (२) विद्युत् एक देव है , क्योंकि यह ऐश्वर्य का साधन है । इससे गति , शक्ति , प्रकाश , समृद्धि और सुख के साधन प्राप्त होते हैं । बृहदारण्यक उपनिषद - ३/१/६ के अनुसार -- "कतम इन्द्रः ? अशनिरिति । " इन्द्रदेव अर्थात ऐश्वर्य का साधन कौन है ? विद्युत् ही इन्द्रदेव अर्थात ऐश्वर्य का साधन है ।

   (३) पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , चन्द्रमा , सूर्य और नक्षत्र , ये आठ सबका निवास स्थान होने से वसु कहलाते हैं । ये आठ वसु समस्त प्राणियों को आश्रय देने से देव हैं ।

   (४) वर्ष के बारह मास हैं - चैत्र , वैशाख , ज्येष्ठ , आषाढ़ , श्रावण , भाद्रपद , आश्विन , कार्त्तिक , मार्गशीर्ष , पौष , माघ और फाल्गुन । इन्हें आदित्य भी कहते हैं । ये बारह आदित्य प्राणियों को आयु देने से देव कहलाते हैं । यदि इन मासों के नाम जनवरी , फरवरी , मार्च , अप्रैल , मई , जून , जुलाई , अगस्त , सितम्बर , अक्टूबर , नवम्बर और दिसम्बर बताये जाएँ तो भी इनका देवपन यथावत रहता हैं क्योंकि इस स्थिति में भी इनका आयु देना सार्थक है और इन नामों से भी ये बारह आदित्य कहलायेंगे ।

    (५) जीवात्मा , पाँच प्राण और पाँच उप प्राण , ये ग्यारह जब शरीर को छोड़ते हैं तो लोग रो पड़ते है । इस कारण ये रूद्र कहलाते हैं | ये ग्यारह शरीर का आधार होने से देव हैं ।

   प्राण और उपप्राण --
पाँच प्राण हैं -- प्राण , उदान , समान , व्यान और अपान ।
पाँच उपप्राण हैं -- नाग , कूर्म , कृकल , देवदत्त और धनञ्जय ।

उपयोग के देव --

   इन तैंतीस कोटि देवों में केवल जीवात्मा चेतन है । यह अन्यों का उपयोग करता है और स्वयं भी अन्य जीवात्माओं के उपयोग में आता है । जैसे - गाय दूध देकर , भेड़ ऊन देकर , कुत्ता रखवाली करके और बैल हल खींचकर उपयोग में आते हैं । मनुष्य सेवक , पाचक , सैनिक , वैद्य आदि बनकर उपयोग में आता है और कृषक , व्यापारी , उपभोक्ता , स्वामी , राजा आदि बनकर अन्यों से उपयोग लेता है । जीवात्मा के अतिरिक्त शेष बत्तीस देव 'जड़' हैं और 'उपयोग के देव' कहलाते है । ये सदैव चेतन के उपयोग में आते हैं और जड़ होने के कारण स्वयं किसी का उपयोग नहीं कर सकते ।

व्यवहार के देव --

    माता , पिता , आचार्य , अतिथि और पति-पत्नी से संसार के व्यवहार सिद्ध होते हैं । इसलिए ये पाँचों 'व्यवहार के देव' कहलाते हैं । तैत्तिरीय उपनिषद ( 1-11- 2 ) के अनुसार -- " मातृदेवो भव , पितृदेवो भव , आचार्यदेवो भव , अतिथिदेवो भव " अर्थात माता , पिता , आचार्य और कुछ व्यक्ति अतिथि बन जाते हैं । इस प्रकार तो सभी मनुष्य देव हो गये ! नहीं , देव-कोटि इतनी सामान्य नहीं अपितु बहुत विशेष है । सम्बन्ध मात्र से देव-कोटि प्राप्त नहीं होती । एक पिता जब जेब काटता है तब जेब काटते समय वह देव नहीं होता । एक स्त्री जब अपने पुत्र से पक्षपात करते हुए किसी अन्य से विवाद करती है तब माता होते हुए भी वह देव-कोटि में नहीं आती । वास्तव में इनमे जितना-जितना गुण , अच्छापन , भलापन , बड़प्पन , देने का शुद्ध भाव और उच्चता है , उतना ही देवपन है । देवपन के समय ही ये पूजनीय हैं ।

सबका इष्टदेव --

   ऊपर वर्णित तैंतीस देवों में आंशिक या सीमित देवपन है । इनसे सुख मिलता है किन्तु दुःख भी मिल सकता है । अग्नि देव है किन्तु भड़क जाए , अतिथि देव है किन्तु शत्रु बन जाय , राजा देव है किन्तु कुपित हो जाय तो दुखदायी हो जाता है । इस कारण ये सदुपयोग और सत्कार की मर्यादाओं से बँधे हैं । सूर्य-चन्द्र और नदी-पर्वतों का सदुपयोग करना मर्यादा है । माता , पिता , आचार्य और अतिथियों की सेवा करना धर्म है । पूर्वज महापुरुषों का अनुसरण , संविधान का पालन और देश की रक्षा करना सब मनुष्यों का कर्तव्य है । किन्तु इनमे से कोई उपासना का देव नहीं है । उपासना का देव तो केवल परमात्मा है । महर्षि दयानन्द ( ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका , वेदविषय विचारः ) के अनुसार -- " परमेश्वर एवेष्टदेवोsस्ति " अर्थात परमेश्वर ही सब मनुष्यों का इष्टदेव है । जो लोग भिन्न-भिन्न देवताओं को पूजते हैं वे कल्याण का वृथा यत्न करते हैं । ईश्वर के अतिरिक्त कभी कोई किसी का उपास्य देव नहीं हो सकता । उसकी उपासना में ही सबका कल्याण है ।

एकदेव महादेव --

   तैंतीस या बहुत से देव बताना तो 'देव' शब्द की व्याख्या एवं इसका विस्तृत अर्थ समझाने के लिए है । किसी विषय को ठीक से समझने-समझाने के लिए उसकी गहराई , विस्तार , सीमा , शंका एवं समाधान की आवश्यकता होती है । इसी पुनीत उद्देश्य से वेद एवं उपनिषद में यह विषय दर्शनीय है । इस ज्ञान का फल यह है कि उपासक का ईश्वर में विश्वास दृढ़ होता है । इस सृष्टि का सब कालों एवं परिस्थितियों में पूर्णतम देव तो एक ही है और वह है परमात्मा । वही पूर्णमहान होने से महादेव है । उसी की उपासना करना मनुष्य का धर्म है ।   



samelan, marriage buero for all hindu cast, love marigge , intercast marriage , arranged marriage
rajistertion call-9977987777, 9977957777, 9977967777or rajisterd free aryavivha.com/aryavivha app        
 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

Why our children are more prone towards suicides

यदि हमारे पूर्वज युद्ध हारते ही रहे तो हम जिंदा कैसे हैं

वेदाध्ययन व वेद प्रचार से अविद्या दूर होकर विद्या वृद्धि होती है