वैदिक त्रैतवाद

वैदिक त्रैतवाद


ईश्वर-जीव-प्रकृति सृष्टि के तीन तत्त्व
        ओ३म् शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्यमा। शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुरुक्रमः।। नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि। ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतु माम् अवतु वक्तारम्। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
       मंच पर आसीन विद्वद्गण एवं अधिकारीगण, सभा में उपस्थित धर्मप्रेमी बन्धुओं एवं मातृशक्ति मैं आप लोगों के सामने अपने कुछ विचार प्रकट करना चाहता हूं। मेरे इन विचारों को कई शास्त्रकारों ने प्रमाणित किया है। आशा करता हूं कि आप लोग भी मेरे इन विचारों से सहमत होंगे।
प्रकृति
       विविधता वाली सम्पूर्ण विशाल सृष्टि में तीन ही तत्त्व होते हैं- ईश्वर, जीव, प्रकृति। इनमें से प्रकृति सत्स्वरूप है, जीव सच्चित्स्वरूप है, ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है। अब हम एकेक करके इन सबका विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
       सबसे पहले प्रकृति को लेते हैं :- सत् स्वरूप वाली प्रकृति जड़ है। इस जड़ प्रकृति में सत्त्व-रजस्-तमस् नामक तीन तत्त्व अलग-अलग बिखरे रहते हैं। इसे मूल प्रकृति की साम्यावस्था कहते हैं। सांख्यकार कपिल ने सांख्यदर्शन के पहले अध्याय के २६ वें सूत्र में प्रक्षिप्त सूत्रों को मिलाकर ६१ वें सूत्र में ''सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः'' कहकर इस बात को पुष्ट किया।
       यह हरियाली जिसको हम प्रकृति समझते हैं और कहते हैं कि प्रकृति बड़ी सुहावनी है, मनोहर है, वास्तव में यह मूल प्रकृति में ही है। यह उस मूल प्रकृति का विकृत रूप है। मूल प्रकृति तो सत्त्व-रजस्-तमस् की साम्यावस्था ही है, जो हमारे इन भौतिक नेत्रों से दिखाई नही देती अथवा ऐसे भी कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति इन आंखों से उस मूल प्रकृति को नहीं देख सकता।
       महर्षि व्यास जी ने महाभारत के वनपर्व के २११ वें अध्याय के १२ वें श्लोक में इस बात को प्रामाणित करते हुए कहते हैं- इन्द्रियैः सृज्यते यद्यत्तत्तद् व्यक्तमिति स्मृतम्। तदव्यक्तमिति ज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम्।। (म.भा.वन.अ.२११/श्लो.१२) अर्थात् भौतिक इन्द्रियों से दिखाई देनेवाली ''व्यक्त-प्रकृति'' है तो भौतिक इन्द्रियों से दिखार्ई न देनेवाली ''अव्यक्त प्रकृति'' अथवा मूल प्रकृति है। सत्त्व-रजस्-तमस् की साम्यावस्था…!!
       अब इसी अव्यक्त, अतीन्द्रिय, मूल प्रकृति के बारे में थोड़ा सा विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं। जैसे मिट्टी से कई प्रकार के बरतन बनाए जाते हैं, उन बरतनों को फोड़ दिया जाए तो उन बरतनों का बरतनपना नष्ट होकर मात्र मिट्टी रह जाती है। ऐसे ही सोने से भिन्न-भिन्न आभूषण बनाते हैं, उन आभूषणों को अग्नि में तपाकर पिघालने पर शुद्ध सोना बच जाता है। वह शुद्ध सोना उन अनगिनत आभूषणों का मूल है, प्रकृति है अथवा उन आभूषणों का उपादान कारण है। ''उपादान कारण'' मतलब आटे से रोटी बनाते हैं तो आटा रोटी का उपादान कारण है। मिट्टी से घड़ा आदि बरतन बनाते हैं तो मिट्टी घड़ा आदि बरतनों को उपादान कारण है। सोने से आभूषण बने हैं इसलिए सोना उन आभूषणों की प्रकृति भी कहलाती है। ठीक उसी प्रकार हरियाली का आधार पृथ्वी, सूरज, चन्द्रमा आदि ग्रह-उपग्रह, पांच महाभूतों की आकृति, मूर्त-रूप नष्ट हो जाने पर जो बचता है वही मूल प्रकृति है। सत्त्व-रजस्-तमस् की साम्यावस्था…!!
       यह नित्य है, यह कभी नष्ट नहीं होती। इस बात को संस्कृत व्याकरण का स्पष्टिकरण करनेवाला वाक्यपदीयम् नामक ग्रन्थ के पदकाण्ड के द्रव्यसमुद्देश नामक प्रकरण के १५ वें श्लोक में शतकत्रयी के प्रणेता भतृहरि ने ''विकारापगमे सत्यं सुवर्णं कुण्डले यथा। विकारापगमे सत्यां तथाहुः प्रकृतिं पराम्।।'' कहकर समर्थन किया। अर्थात् जैसे आभूषण रूपी विकार के नष्ट हो जाने पर शुद्ध सोना बच जाता है, ऐसे ही हरियाली एवं पांच महाभूतों रूपी विकारों के नष्ट हो जाने पर जो बचता है वही मूल प्रकृति है, सत्त्व-रजस्-तमस् उसकी साम्यावस्था इस सम्पूर्ण सृष्टि का उपादान कारण है। यह सृष्टि के प्रलयावस्था में भी रहती है। क्योंकि यह अनादि तत्त्व है। इसलिए इस सृष्टि के प्रलयावस्था में भी रहती है। क्योंकि यह अनादि तत्त्व है।
       इसलिए ऋग्वेद के दशम मण्डल के १२९ वें सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस बात को इस प्रकार समझाया गया है- ''नाऽसदासीन्नोसदासीत्तदानीम्'' (ऋग्वेद १०/१२९/१) अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले विकृतिरूप प्रकृति अर्थात् हरियाली एवं पंच-महाभूत नहीं थे, परन्तु मूल प्रकृति सत्त्व-रजस्-तमस् की साम्यावस्था तो थी। जो इस सम्पूर्ण सृष्टि का उपादान कारण है। आयुर्वेद का ग्रन्थ अष्टांगसंग्रह में वाग्भट्ट ने सत्त्व-रजस्-तमस् को महागुण बताया। और इन महागुणों से पांच महाभूतों की उत्पत्ति को स्पष्ट किया। अष्टांगसंग्रह के सूत्रस्थान के पहले अध्याय के ४१ वें श्लोक में ''सत्त्वंरजस्तमश्चेति त्रयः प्रोक्ता महागुणाः'' कहकर सत्त्व-रजस्-तमस् को महागुण की संज्ञा दी। फिर शरीरस्थान के ५ वें अध्याय के ४ थे खण्ड में ''महागुणमयेभ्यश्च खपवनतेजोजलभूम्याख्येभ्यो महाभूतेभ्यश्चेतनाधिष्ठितेभ्योऽभि निर्वृत्तिः'' कहा। अर्थात् सत्त्व-रजस्-तमस् नामक अव्यक्त अतीन्द्रिय महागुणों से आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि नामक व्यक्त इन्द्रियग्राह्य पांच स्थूल महाभूत बनते हैं। इन पांच महाभूतों से सब प्राणियों के शरीर बनते हैं।
       इन दोनों प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि अभाव से भाव कभी नहीं बनता। इसी बात को भतृहरि ने व्याकरण को दार्शनिक रूप देते हुए वाक्यपदीयम् के पदकाण्ड के सम्बन्धसमुद्देश नामक प्रकरण के ६१ वें श्लोक में कहा है- ''नाऽभावो जायते भावो नैति भावोऽनुपाख्यताम्'' अर्थात् अभाव से यानि अविद्यमान पदार्थ से भाव यानि विद्यमान पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती और विद्यमान पदार्थ कभी नष्ट नहीं हो सकता, मात्र रूपांतरित होता है, पुनः अपने कारण में लीन हो जाता है।
       यदि कोई वस्तु बनी है… इसका अर्थ है उसका मूल उपादान कारण रूपान्तरित हुआ। और यदि कोई वस्तु नष्ट हुई है इसका अर्थ है वह अपने कारण में लीन हो गई। जैसे बर्फ को पिघालने पर बर्फ पानी में बदल जाता है, उस पानी को उबालने पर भाफ के रूप में बदल जाता है। उसी पानी को जमाने पर फिर से बर्फ बन जाएगा। अर्थात् एक बर्फ के टुकड़े का रूपांतर होकर पानी बना, पानी का रूपान्तर होकर भाफ बना तथा भाफ अपने कारण में लीन होकर पुनः बर्फ बना। सांख्यकार कपिल ने अपने सांख्यदर्शन के प्रथम अध्याय के ८६ वें सूत्र में प्रक्षिप्त सूत्रों को मिलाकर १२१ वें सूत्र में ''नाशः कारणलयः'' कहकर इस बात का समर्थन किया है।
       आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मत है कि इस सृष्टि में किसी भी वस्तु का मात्र रूपान्तर किया जा सकता है। परन्तु सर्वथा नए वस्तु को उत्पन्न नही कर सकता। स्वयं ईश्वर भी नहीं कर सकता मनुष्य की तो बात ही क्या ? अर्थात् ईश्वर भी सत् स्वरूप वाली अव्यक्त, अतीन्द्रिय, मूल प्रकृति रूपी उपादान कारण के बिना इस सृष्टि को बना ही नहीं सकता।
       इसलिए दृश्यमान् प्रकृति का पांच महाभूतों का मूल उपादान कारण अदृश्य मूल प्रकृति सत्त्व-रजस्-तमस् की साम्यावस्था अनादितत्त्व 'सत्स्वरूप' है। अस्तीति सत्..!!
जीव
       अगला है जीव..! सच्चित् स्वरूप वाले जीव इस सृष्टि में अनगिनत संख्या में रहते हैं। ये जीव निरन्तर एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते रहते हैं, इसलिए इन्हें आत्मा कहते हैं। ''अतति गच्छति सततं देहाद्देहान्तरमिति आत्मा'', ''अत सातत्यगमने'' पाणिनीय धातुपाठ भ्वादिगण ३१ वां सूत्र।
       यह आत्मा जिस शरीर में रहता है वह शरीर प्राण धारण करता है। प्राण धारण करना अर्थात् जीवित रहना। इसलिए इस आत्मा को 'जीवात्मा' कहते हैं। ''जीव प्राणधारणे'' पाणिनीय धातुपाठ भ्वादिगण ३७९ वां सूत्र।
       शरीर में जीवात्मा है और वह शरीर से भिन्न है इस बात की और भी पहचान है। न्यायदर्शनकार गौतम अपने न्यायदर्शन के प्रथम अध्याय के पहले आह्निक के दसवें सूत्र में शरीर में जीवात्मा की पहचान बताते हुए कहते हैं ''इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानानि आत्मनो लिङ्गम्'' अर्थात् इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान का होना शरीर में जीवात्मा है इस बात का परिचायक यानि पहचान है।
       वैशेषिककार कणाद अपने वैशेषिक दर्शन के तीसरे अध्याय के दूसरे आह्निक के चौथे सूत्र में शरीर में जीवात्मा की पहचान बताते हुए कहते हैं-
       ''प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनो- गतीन्द्रियान्तर्विकाराः सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि'' अर्थात् प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तर्विकार, यानि एक इन्द्रिय के विषय को देखने पर अन्य इन्द्रिय में विकार का उत्पन्न होना। जैसे किसी व्यक्ति को नींबू जैसी खट्टी चीज खाते हुए देखनेपर देखनेवाले के मुंह में पानी आना सुख-दुःख-इच्छा-द्वेष और प्रयत्न का होना शरीर में जीवात्मा के विद्यमानता की पहचान है।
       महर्षि व्यास जी ने इस जीवात्मा के बारे में भगवान् श्रीकृष्ण जी के मुख से भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के २२ वें श्लोक में इस प्रकार कहलवाया ''वासांसि जीर्णानि यथाविहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देहि।।'' अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है, ऐसे ही जीवात्मा भी पुराने जीर्ण शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करता है, उसी को हम लोग जन्म-मृत्यु समझते हैं। वास्तव में जीवात्मा न तो मरता है न हि जन्म लेता है- ''न जायते म्रियते वा कदाचित्'' भगवद्गीता अध्याय २ श्लोक २०, वह तो अजर और अमर है। क्योंकि गीता के दुसरे अध्याय का २३ वां श्लोक उपदेश देता है कि ''नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।'' अर्थात् इस जीवात्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि नहीं जला सकता, पानी नहीं भिगो सकता, हवा नहीं सुखा सकता। इसलिए यह जीवात्मा अजर और अमर है।
       जैसे हम स्नान करने पर, गन्दे होने पर, फट जाने पर कपड़े बदलते हैं, ऐसे ही जीवात्मा भी भिन्न-भिन्न कारणों से अपने पुराने जीर्ण शरीर को छोड़कर नया शरीर ढूंढ लेता है। इस बात को महर्षि श्वेताश्वतर श्वेताश्वतरोपनिषद् के पांचवे अध्याय के ११ वें श्लोक में समर्थन करते हुए कहते हैं- ''कर्मानुगान्यनुक्रमेण देहि स्थानेषु रूपाण्यभिसम्प्रपद्यते'' अर्थात् कर्मों के अनुसार जीवात्मा भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न योनियों को प्राप्त कर लेता है।
       अनेकानेक कारणों में से इस कारण से कब जीवात्मा किस शरीर को छोड़ता है हम बता नहीं सकते अथवा हमें पता नहीं चल सकता। इसलिए पंचतन्त्र के काकोलूकीयम् नामक प्रकरण के ९६ के श्लोक में आचार्य विष्णुशर्मा उपदेश देते हैं कि- ''अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः। नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।।'' अर्थात् यह शरीर अनित्य है, शाश्वत नहीं है। हमारे पास जो धन-सम्पत्ति है वह भी शाश्वत नहीं है। मौत हरपल हमारे सामने खड़ी है इसलिए हमें हमेशा धर्माचरण ही करना चाहिए। धार्मिक कार्यों में देरी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि शतपथ ब्राह्मण के पहले काण्ड के दूसरे अध्याय के प्रथम प्रपाठक में प्रथम कण्डिका में महर्षि याज्ञवल्क्य उपदेश देते हैं- ''न श्वः श्वमुपासीत को हि मनुष्यस्य श्वो वेद'' अर्थात् किसी भी अच्छे कार्य को करने के लिए हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि यह काम कल कर लेंगे, क्योंकि किसी भी मनुष्य का कल है कि नहीं कोई नहीं जानता। इसी बात को शायद रहीम ने व्रजभाषा में सरलता से कहा है- ''कल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में परलय होवेई बहुरि करेयो कब ?''
       हम जीवात्मा की बात कर रहे थे, कई बार कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से द्वेष करता है और सोचता है कि अमुक व्यक्ति के कारण मेरी बहुत हानि हुई है या हो रही है इसलिए मैं अमुक व्यक्ति को जान से मार कर अपना बदला चुका लूंगा। परन्तु गीता के दूसरे अध्याय के बीसवें श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जन को उपदेश देते हैं ''न हन्यते हन्यमाने शरीरे'' अर्थात् मारे जानेवाले शरीर के साथ जीवात्मा कभी नहीं मरता।
       इस जीवात्मा का कोई लिंग नहीं होता। यह जीवात्मा न स्त्री होता है, न पुरुष होता है, न हि नपुंसक होता है। श्वेताश्वतरोपनिषद के पांचवे अध्याय के नवम श्लोक में इस बात का विश्लेषण करते हुए ऋषि श्वेताश्वतर कहते हैं- ''नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसक यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स वक्ष्यते।'' अर्थात् यह जीवात्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न हि नपुंसक है, न कीड़ा है, न पशु है, न पक्षी है। यह जिस शरीर में रहता है उस-उस नाम से पुकारा जाता है।
       इस जीवात्मा को इस जन्म में किए हुए पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार अगले जन्म में जाति आयु भोग मिल जाते हैं। योगदर्शनकार पतंजलि ने अपने योगदर्शन के दूसरे पाद के तेरहवें सूत्र में ''सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा'' कहकर इस बात को स्पष्ट किया।
जाति
       अब यह जानते हैं कि जाति-आयु-भोग क्या हैं ? न्यायदर्शनकार गौतम अपने न्यायदर्शन के दूसरे अध्याय के दूसरे आह्निक के ७१ वें सूत्र में जाति की परिभाषा इस प्रकार करते हैं- ''समानप्रसवात्मिका जातिः'' अर्थात् भिन्न-भिन्न अधिकरणों में अथवा व्यक्तियों में समान ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली जाति कहलाती है। जैसे गो जाति, अश्व जाति, मनुष्य जाति आदि-आदि। संसार के किसी भी कोने पर कई गायों को देखते हैं तो उन गायों में एक ही गायपना दिखाई देता है। इसी को गोत्व कहते हैं। यही जाति है।
       हरेक जाति का प्राणि अपने ही जाति के प्राणि को उत्पन्न कर सकता है। मनुष्य मनुष्य को ही पैदा कर सकता है, हाथी या घोड़े को नहीं। हाथी हाथी को ही पैदा कर सकता है, शेर या बकरी को नहीं। शेर शेर को ही पैदा कर सकता है, कुत्ता या बिल्ली को नहीं। कुत्ता कुत्ते को ही पैदा कर सकता है, चूहे या मेंढक को नहीं। अर्थात् हर जाति का प्राणि अपने ही जाति के प्राणि को उत्पन्न कर सकता है। अन्य जाति के प्राणि को उत्पन्न नहीं कर सकता। यही जातिपना है।
आयु
       अब आयु पर विचार करते हैं- आयुर्वेद का एक ग्रन्थ है जिसका नाम है 'काश्यप संहिता'। काश्यप संहिता के विमानस्थान के प्रथम अध्याय में आचार्य कश्यप ने 'आयुर्जीवितमुच्यते' कहकर आयु की परिभाषा की। चरक संहिता के सूत्रस्थान में आचार्य चरक ने प्रथम अध्याय के ४२ वें श्लोक में आयु की परिभाषा बताते हुए कहते हैं ''शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगो धारि जीवितम् नित्यगश्चानुबन्धश्च पर्यायैरायुरुच्यते'' अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं। शरीर, इन्द्रिय, मन तथा आत्मा को परस्पर धारण करने की क्षमतावाला होने से आयु को धारि भी कहते हैं। जब तक शरीर में चेतनता रहती है तब तक आयु रहती है इसलिए आयु को जीवितम् भी कहते हैं। प्रतिक्षण गमनशील रहने से आयु को नित्यग भी कहते हैं। अपरापर शरीर से सम्बन्ध करने से आयु को अनुबन्ध भी कहते हैं।
       जाति के अनुसार आयु निश्चित होती है। जैसे कई कीड़े जन्म के कुछ घण्टों के बाद ही मर जाते हैं, कई कीड़ों का कई सालों का जीवन काल होता है। उदाहरण के लिए एक प्रकार के मेंढक की आयु वैज्ञानिकों ने २४ वर्ष की बताई, एक मछली है जिसका नाम है गोल्डन फिश। इसकी आयु वैज्ञानिकों ने ४३ वर्ष की पहचानी है।
       मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होती है। नियमविरुद्ध आचरण के कारण मनुष्य अपनी आयु को घटा भी सकता है अथवा पूर्ण पुरुषार्थ, नियमित खान-पान और नियमित दिनचर्या का पालन करते हुए आयु को बढ़ा भी सकता है।
भोग
       अब भोग पर विचार करते हैं- योगदर्शनकार पतंजलि अपने योगदर्शन के तीसरे पाद के ३४ वें सूत्र में भोग की परिभाषा बताते हुए कहते हैं- ''सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तासङ्कीर्णयो प्रत्ययाविशेषो भोगः'' अर्थात् बुद्धि और पुरुष के सर्वथा भिन्न होने पर भी बुद्धि और पुरुष को एक समझना भोग है। यह भोग भी जाति के अनुसार निश्चित होता है। जैसे गिद्ध के शरीर में रहनेवाला आत्मा यह समझता है कि मैं गिद्ध हूं। सापों को मार कर खाना मेरे परम धर्म है। पेड़ों पर निवास करना मेरे लिए सुखकारक है। मधुमक्खी के शरीर में रहनेवाला आत्मा यह समझता है कि मैं मधुमक्खी हूं। मधुमक्खी होने के कारण फूलों का रस चूसकर शहद बनाना मेरा परम धर्म है, छत्ते पर निवास करना मेरे लिए सुखकारक है। गाय के शरीर में रहनेवाला आत्मा समझता है घास खाकर मनुष्य को दूध देना मेरा परम धर्म है, मेरा पालक मनुष्य मुझे जहां भी मुझे रखे वहां रहना मुझे सुखकारक है। सुवर के शरीर में रहनेवाला आत्मा यह समझता है कि मैं सुवर हूं, मनुष्य का मल खाकर धरती को शुद्ध करना मेरा परम धर्म है, गन्दे नालों में लोटना मेरे लिए सुखकारक है।
       ये जीवात्मा एकदेशी है, अल्पज्ञ है, अल्पशक्तिवाला है। पाप-पुण्य एवं मिश्रित कर्मों को करने में स्वतन्त्र है परन्तु इन कर्मों का फल पाने के लिए जीवात्मा को परमात्मा के अधीन रहना पड़ता है।
ईश्वर
       अब ईश्वर को लेते हैं :- अथर्ववेद के तेरहवें काण्ड के चौथे सूक्त का १२, २० वें मन्त्र की एक सूक्ति है ''स एष एक एकवृदेक एव'' (अथ. कां.१३ सू.४ मं.१२,१३) यजुर्वेद के ३२ वें अध्याय का तीसरा मन्त्र कहता है ''न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः'' अर्थात् सच्चिदानन्दस्वरूप वाला ईश्वर एक ही होता है, उसकी कोई मूर्तरूप यानि प्रतिमा नहीं होती। वह सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहता है। इसलिए इसे भी आत्मा ही कहते हैं। ''आप्नोति व्याप्नोति चराचरं जगत् स आत्मा परमेश्वरः'' 'आप्लृ व्याप्तौ' पाणिनीय धातुपाठ स्वादिगण १५ वां सूत्र।
       यह आत्मा सर्वशक्तिमान है, इसके बराबर दूसरा कोई आत्मा ही नहीं है। इसलिए इसे परमात्मा कहते हैं। इस परमात्मा के व्यापकता का यजुर्वेद के ३२ वें अध्याय के आठवें मन्त्र में इस प्रकार वर्णन किया गया है- ''स ओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु'' (यजुर्वेद ३२/८) अर्थात् वह परमात्मा इस सम्पूर्ण सृष्टि में ओतःप्रोत है। यह ओत-प्रोत क्या होता है ? ओत-प्रोत यानि कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु के ऊपर भी रहना, नीचे भी रहना, अन्दर भी रहना, बाहर भी रहना ओत-प्रोत कहलाता है। उदाहरण के लिए एक बाल्टी में पानी भरें और एक लोटे में भी पानी भरें, अब पानी से भरे हुए लोटे को पानी से भरे हुए बाल्टी के अन्दर डालें। तो क्या होगा ? पानी से भरा हुआ लोटा बाल्टी के पानी में डूब जाएगा। परिणामस्वरूप लोटे के अन्दर, बाहर, ऊपर, नीचे पानी रहेगा। इस स्थिति में लोटा पानी से ओत-प्रोत हो जाएगा। ऐसा ही परमात्मा इस सम्पूर्ण सृष्टि में ओतःप्रोत है।
       अब यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि परमात्मा इस सम्पूर्ण सृष्टि में ओतःप्रोत कैसे है ? यह जानने के लिए श्वेताशतरोपनिषद के तीसरे अध्याय के २० वें श्लोक का आश्रय लेते हैं वह श्लोक इस प्रकार है- ''अणोरणीयान् महतो महीयान् आत्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः तमक्रतुं पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान् महिमानमीशम्'' (श्वेताशतर. अ.३ श्लो.२०) इसी श्लोक को कठोपनिषद में महर्षि कठ थोड़े से अन्तर से इस प्रकार बताते हैं- ''अणोरणीयान् महतो महीयान् आत्माऽस्य जन्तोः निहितो गुहायां तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान् महिमानमात्मनः'' (कठो. वल्ली २ श्लोक २०) अब इसके अर्थ पर विचार करते हैं- यह परमात्मा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होकर सम्पूर्ण सृष्टि में विद्यमान है। सूक्ष्म मतलब कितना सूक्ष्म हो सकता है ?
      परमात्मा की सूक्ष्मता को जानने के लिए पहले जीवात्मा की सूक्ष्मता को जानने का प्रयास करते हैं। जीवात्मा की सूक्ष्मता के बारे में श्वेताश्वतरोपनिषद के पांचवे अध्याय के नौवें श्लोक में कहा गया है- ''बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च भागो जीवः स विज्ञेयः।'' (श्वेता.अ.५ श्लो.९) अर्थात्  एक बाल के नोक के सौ टुकड़े करके उस सौवें टुकड़े के फिर से सौ टुकड़े करने पर वह एक बाल के नोक का दस हजारवां टुकड़ा कितना सूक्ष्म हो सकता है ? कल्पना कीजिए ! इतने सूक्ष्म जीवात्मा के अन्दर भी परमात्मा रहता है तो वह परमात्मा कितना सूक्ष्म हो सकता है ? है न कल्पनातीत..!!
       इतना सूक्ष्म होकर जीव के अन्दर रहता हुआ परमात्मा करता क्या है ? ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १६४ वें सूक्त का दूसरा मन्त्र इस प्रश्न का उत्तर देता है। वह मन्त्र है ''द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति।। (ऋग्वेद मं.१ सू.१६४ मं.२) अर्थात् इस शरीर रूपी वृक्ष पर दो पक्षी बैठे रहते हैं। उन दानों में से एक पक्षी इस वृक्ष पर लगनेवाले कडुवे, मीठे, तीखे, खट्टे फलों को खाता रहता है तो दूसरा पक्षी कुछ भी न खाता हुआ खानेवाले पक्षी का निरीक्षण करता रहता है। खानेवाला पक्षी जीवात्मा है तो निरीक्षण करनेवाला पक्षी परमात्मा है। इसलिए कोई यह सोचे कि मैं छुपकर कुछ कर रहा हूं, मुझे कोई देख नहीं रहा यह उसकी भ्रान्ति है। क्योंकि हरेक जीवात्मा के अन्दर रहता हुआ परमात्मा यह देखता रहता है कि किस समय पर किस स्थान पर किस योनि में रहकर कौन सा जीवात्मा कौन सा पाप, कौन सा पुण्य कर रहा है, किस का भला कर रहा है और किस को धोका दे रहा है।
       परन्तु लोग क्या सोचते हैं ? महाभारत जो पञ्चम वेद माना जाता है उसके आदिपर्व के सम्भवपर्व में चोहत्तरवें अध्याय के २९ वें श्लोक में महर्षि व्यास जी बताते हैं- ''मन्यते पापकं कृत्वा न कश्चिद्वेत्ति मामिति विन्दन्ति चैनं देवाश्च यश्चैवान्तरपूरुषः'' (महा. आदि. सम्भवपर्व अ.७४ श्लोक २९) अर्थात् पाप कर्म करके मनुष्य यह सोचता है कि मुझे कोई नहीं जान रहा परन्तु यह नहीं जान पाता है कि हरेक जीवात्मा के अन्दर रहनेवाला परमात्मा उसका निरीक्षण कर रहा होता है।
       अथर्ववेद के चौथे काण्ड के १६ वें सूक्त का दूसरा मन्त्र इसी बात को प्रमाणित करता है कि- ''यस्तिष्ठति चरति यश्च वञ्चति यो निलायं चरति यः प्रतङ्कम्। द्वौ सन्निषद्य यन्मन्त्रयेते राजा च तद्वेद वरुणस्तृतीयः।।'' (अथर्व. कां.४ सू.१६ मं.२) अर्थात् यस्तिष्ठति जो रुका हुआ है, चरति जो चल रहा है, यश्च वञ्चति जो ठग रहा है, यो निलायं चरति जो छिपकर कुछ कर रहा है, यः प्रतङ्कम् जो खुलकर कुछ कर रहा है। द्वौ सन्निषद्य यन्मन्त्रयेते दो लोग मिलकर रहस्य में कुछ बात कर रहे हैं, यह सब राजा च तद्वेद वरुणस्तृतीयः वही तीसरा वरुण राजा परमात्मा देख रहा होता है।
       इसलिए हम जो भी कुछ अच्छा और बुरा करते हैं तब, तथा जब हमें अकेलापन लगता है तब, हर समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वह परमात्मा हमेशा हमारे साथ है। वह हमारे द्वारा किए गए पाप-पुण्यों का फल अवश्य ही देगा। इसलिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रथम खण्ड के ३७ वें अध्याय का १७ वां श्लोक यह चेतावनी देता है- ''अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म कोटिकल्प शतैरपि।।'' (ब्र.वै.पु.खं.१ अ.३७ श्लो.१७) अर्थात् करोड़ों वर्र्ष बीतने पर भी हमारे द्वारा किए गए पाप-पुण्य कर्म, फल भोगे बिना नष्ट नहीं होते।
परमात्मा की स्थूलता
       अब श्वेताश्वतरोपनिषद के श्लोक के अगले टुकड़े पर विचार करते हैं। वह टुकड़ा है- ''महतो महीयान्'' अर्थात् वह परमात्मा बड़ों से भी बड़ा है। बड़ा मतलब कितना बड़ा ? यह जानने के लिए पहले पृथ्वी कितनी बड़ी है यह जानते हैं- यह पृथ्वी जिसपर कि हम जीते हैं, गोल है। इसका व्यास १२,७५६ किलोमीटर है। इसका क्षेत्रफल ५१ करोड़ १३ लाख ९१ हजार ६८४ वर्ग किलोमीटर है। यह सूर्य जिसके किरणों से पृथ्वी पर जीवनीय शक्ति है, इस पृथ्वी से चौदह लाख गुना बड़ा है। इसका व्यास १३,९२,५२० किलोमीटर है। इन दोनों की बीच की दूरी लगभग १५ करोड़ (१५,००,००,०००) किलोमीटर है।
       इतने बड़े तो एक पृथ्वी, एक सूरज और इन दोनों के बीच की दूरी की बात है। इस प्रकार के बड़े-बड़े ग्रह-उपग्रह इस सम्पूर्ण सृष्टि में अनगिनत संख्या में विद्यमान हैं। तो यह सृष्टि कितनी बड़ी हो सकती है कल्पना कीजिए ! इतनी बड़ी सृष्टि के ऊपर भी, नीचे भी, अन्दर भी, बाहर भी रहनेवाला परमात्मा कितना बड़ा हो सकता है.. कल्पनातीत है न..!!
       इतना ही नहीं यजुर्वेद के इकत्तीसवें अध्याय का तीसरा मन्त्र कहता है- ''पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्याऽमृतं दिवि।'' अर्थात् इतनी बड़ी सृष्टि तो परमात्मा के एक चौथाई के बराबर है, इससे तीन गुना बड़ा परमात्मा और है। अब बताइए परमात्मा कितना बड़ा हो सकता है इसकी कल्पना करना हमारे वश की बात है ?
       सृष्टि स्थिति लय कारक ईश्वर ही है
       इतना बड़ा होकर सम्पूर्ण सृष्टि के अन्दर भी, बाहर भी ऊपर भी, नीचे भी रहनेवाला परमात्मा करता क्या है ? इतना बड़ा होकर इस सम्पूर्ण सृष्टि में फैला हुआ परमात्मा इस सम्पूर्ण सृष्टि को रचकर इसमें अनगिनत संख्या में रहनेवाले ग्रहोपग्रहों को सुव्यवस्थित ढंग से दिन-रात चला रहा होता है।
       परन्तु कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह सृष्टि अपने आप बनी है, इसे बनानेवाला कोई नहीं है। यह सृष्टि अपने आप चलती है, इसे चलानेवाला कोई नहीं है। ऐसे लोगों से मैं पूछना चाहता हूं- ''जगतां यदि नो कर्त्ता कुलालेन विना घटः चित्रकारं विना चित्रं स्वत एव भवेत्तथा'' इस चित्र-विचित्र चराचर जगत् को बनानेवाला यदि कोई नहीं है, यह सम्पूर्ण सृष्टि अपने आप बनी है, यदि ऐसा कहते हो तो आज भी कुम्हार के बिना घड़ा भी बन जाना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं होता। इससे पता चलता है कि इस सृष्टि को बनानेवाला कोई है।
       गुरुकुल में हम थोड़े से विद्यार्र्थी होते हैं, जब गुरुजी हमारे सामने होते हैं, तो हम बहुत ही शिष्टता से पढ़ते रहते हैं। जब आचार्य जी इधर-उधर रहते हैं या नहीं होते हैं, हम खूब ऊधम मचाते हैं।
       सड़कों पर कई गाड़ियां चलती रहती हैं। इन पर नियन्त्रण रखने के लिए कुछ नियम होते हैं। उन नियमों को ट्राफिक रूल्स् कहते हैं। इन पर नियन्त्रण रखनेवालों को ट्राफिक पुलीस कहते हैं। चौराहों पर ट्राफिक सिग्नल्स् होते हैं। उन सिग्नलों के नियन्त्रण के अनुसार गाड़ियां चलती हैं तो आपस में नहीं टकरातीं। यह सृष्टि तो इतनी बड़ी है, बड़े-बड़े ग्रहोपग्रह इस सृष्टि में निरन्तर बहुत ही तीव्र गति से घूमते रहते हैं। उदाहरण के लिए इस ब्रह्माण्ड में घूमनेवाले ग्रहोपग्रहों में से एक पृथ्वी की गति को देखते हैं। जिस पृथ्वी पर हम चल-फिर-घूम रहे हैं, जी रहे हैं इसका घूर्णन १,६७४ किलोमीटर प्रति घण्टा है। पृथ्वी के इस घूर्णन के कारण ही दिन-रात बनते हैं। घूर्णन अर्थात् अपने आप गोल-गोल चक्कर काटना। इसके साथ-साथ यह पृथ्वी सूरज के चारों ओर भी घूमती है। जिसके कारण ६ ऋतुएं- वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर तथा तीनों काल- सर्दी, गर्मी, वर्षा होते हैं।
       सूरज की परिक्रमा में यह पृथ्वी १,०८,००० किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से दौड़ती रहती है। परन्तु किसी से टकराती नहीं है। इतनी तेजी से घूमने पर भी इसके ऊपर चलने-फिरनेवाले जीवराशि नहीं गिरते हैं। केवल पृथ्वी ही नहीं इस ब्रह्माण्ड में इस प्रकार के बड़े-बड़े ग्रहोपग्रह अनगिनत संख्या में घूम रहे हैं। परन्तु एक-दूसरे से कभी नहीं भिड़ते। इस स्थिति को देखकर पता चलता है कि इनको चलानेवाला, इन पर कड़ा नियन्त्रण रखनेवाला कोई है।
       यदि हमारे घर में कोई बच्चा है और उस बच्चे के पास कोई खिलौना होता है, तो वह बच्चा उस खिलौने से खेल-खेल के तोड़ देता है। जब घर में कोई खेलनेवाला बच्चा ही नहीं होगा तो वह खिलौना टूटेगा कैसे ? इससे पता चलता है कि इस सृष्टि को कोई मिटानेवाला भी कोइ न कोई है। वही ईश्वर है, वही परमात्मा है, वही ळव्क् है। ळ वित हमदमतंजवतए व् वित वचमतंजवतए क् वित कमेजवपत इस सृष्टि को बनानेवाला, चलानेवाला और मिटानेवाला भी परमात्मा ही है।
       अब शंका यह उठती है कि परमात्मा इस सृष्टि को कैसे बनाता होगा ? मुण्डकोपनिषद के प्रथम मुण्डक  के सत्रहवें श्लोक में महर्षि मुण्डक इस गुत्थी को सुलझाते हुए कहते हैं- ''यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि तथाक्षरात् सम्भवतीह विश्वम्।'' (मुण्डक.१/१७) अर्थात् जैसे मकड़ी अपना घर बनाने के लिए अपने पेट में से धागा निकालती है, जब उसको वह स्थान अनुचित लगता है तो वह फिर से उस धागे को खाकर अपना घर मिटा भी लेता है।
       जैसे वर्षा ऋतु में पृथ्वी के गर्भ से लाखों औषधियां उत्पन्न होती हैं, जैसे जीवित पुरुष के केश और लोम उत्पन्न होते हैं, ऐसे ही परमात्मा इस सृष्टि को बनाता और मिटाता भी है। अब दूसरी शंका यह उठती है कि आखिर परमात्मा इस सृष्टि को क्यों बनाता है ? इसका उत्तर क्या हो सकता है ? इस पर थोड़ा चिन्तन करते हैं-
       सच्चिदानन्दस्वरूपवाला परमात्मा सच्चित् स्वरूपवाले जीवात्माओं को अपने आनन्द की अनुभूति कराने के लिए जो कि (आनन्द) जीवात्माओं में नहीं है, सत् स्वरूपवाले मूल प्रकृति से इस सम्पूर्ण सृष्टि को रचकर इस सृष्टि में ८४,००,००० चौरासी लाख प्रकार की योनियां बनाकर इन योनियों में जीवात्माओं को बिठाता है। इस बात की पुष्टि करते हुए गरुड़पुराण के प्रेतकल्प के धर्मप्रकरण नामक द्वितीय अध्याय में प्रमाण मिलता है। वह प्रमाण क्या है ? ''चतुरशीति लक्षाणि चतुर्भेदाश्च जन्तवः अण्डजाः स्वेदजाश्चैव उद्भिजाश्च जरायुजाः।'' (गरुड़पुराण प्रेतकल्प धर्मप्रकरण द्वितीय अध्याय)
       इन चौरासी लाख प्रकार की योनियों में एक मानव योनि को छोड़कर बाकी तिरासी लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे योनियों में रहनेवाला जीवात्मा परमात्मा के आनन्द को पाकर मोक्षावस्था में जाने में असमर्थ है क्योंकि केवल मानव योनि में ही पांचो ज्ञानेन्द्रियां ''श्रोत्रत्वक्चक्षुजिह्वाघ्राण नामानि'' तथा पांच कर्मेन्दियां ''वाक्पायूपस्थपाणिपादसंज्ञकानि'' पूर्णतः विकसित हैं। मनुष्येतर प्रणियों में यह सुविधा नही है। इसलिए उनमें मोक्षानन्द का भी अवसर नहीं है।
       अब प्रश्न यह उठता है कि जब मानव योनि में रहनेवाला जीवात्मा ही मोक्ष को पा सकता है, अन्य योनियो में रहनेवाला परमात्मा के आनन्द को मोक्ष के रूप में नहीं पा सकता तो अन्य सब ८३,९९,९९९ योनियों को बनाने की क्या आवश्यकता है ? सब के सब मनुष्य ही बनाता। अन्य प्राणियों के कारण कई बार मनुष्यों को अकालमृत्यु का भी शिकार होना पड़ता है। जैसे कई किसान खेतों में काम करते समय सापों के द्वारा डसे जाने के कारण मर जाते हैं। कईयों को शेर खा जाते हैं। कई बार चिड़ा हुआ हाथी अनेकों को कुचल देता है। ये तो प्रत्यक्ष घटनाएं हैं। उडिसा की एक लड़की गुरुकुल मे पढ़ती थी, हम लोग उसके घर गए, उसके पिताजी कह रहे थे- कि कई बार हाथियों के झुण्ड जंगलो से गांव में घुसते है और कई लोगों को कुचलकर चले जाते हैं। हमारे आचार्य जी बताते थे कि उनके बचपन में उनके गांव में भेड़िये आते थे, बच्चों को उठाकर ले जाते थे और खा लेते थे। तो दिनभर बूढ़ी माताएं बच्चों के पहरे पर बैठी रहती थीं और रात को मेरी मां मुझे अपने पल्लू में कस के बांधके सोया करती थीं। उत्तर प्रदेश के गाँवों में आज भी लोग घरों के आंगनों में सोते हैं, कमरों में कोई नहीं सोता। कितने लोगों की अकालमृत्यु हो जाती है इन जंगली जानवरों के कारण..!! इसलिए चाणक्य ने अपने चाणक्यनीति के नवम अध्याय के तीसरे श्लोक में सृष्टि बनाते समय परमात्मा ने क्या-क्या मूर्खताएं की उनको एक श्लोक में गिनाया- ''गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य। विद्वान् धनी नृपतिर्दीर्घजीवि धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत्।।'' अब इस श्लोक के एकेक पंक्ति पर विचार करते हैं, गन्धः सुवर्णे अर्थात् परमात्मा ने सोने जैसी कीमती धातु बनाई परन्तु उसमें सुगन्धि नहीं भरी, कितना अच्छा होता सोने में सुगन्धि भी होती तो अलग से सेंट लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। फलमिक्षुदण्डे गन्ना जैसा मीठा तना बनाया परन्तु उसमें फल नहीं बनाया, कितना अच्छा होता यदि गन्ने पर फल भी लगता, कितना मीठा हो सकता था गन्ने का फल..!! नाकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य अर्थात् चन्दन जैसे वृक्ष का तना इतना सुगन्धियुक्त बनाया परन्तु उस पर फूल नहीं बनाया, कितना अच्छा होता चन्दन के पेड़ पर फूल भी लगता, कितनी सुगन्धि हो सकती थी..!! विद्वान् धनी विद्वान् को धनी नहीं बनाया, कितना अच्छा होता यदि विद्वान धनी भी होता तो सुख से जी सकता था, धन के लिए उसे दूसरों के आश्रित नहीं रहना पड़ता। नृपतिर्दीर्घजीवि राजा को दीर्घ जीवन नहीं दिया, लगभग सभी राजा अल्पायु में ही मर जाते हैं। इन सब स्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि सृष्टि को बनाते समय परमात्मा को सलाह देनेवाला कोई नहीं था। या परमात्मा ने किसी से सलाह नहीं ली। मुझ से ही सलाह मांग लेता तो मैं सही सलाह देता और इस सृष्टि में कोई कमी रहने ही नहीं देता।
       परमात्मा के द्वारा बनाई गई इस सृष्टि के प्रति इतने भारी-भारी आक्षेप लगाए। आपको क्या लगता है कि ये आक्षेप सही हो सकते हैं ? नहीं, इनका निराकरण होना चाहिए। अब इन आक्षेपों का निराकरण सोचते हैं। पहला आक्षेप क्या था.. गन्धः सुवर्णे- यदि सुवर्ण में सुगन्धि भी होती तो कोई भी कहीं भी सोने को सुरक्षित नहीं रख सकते थे। सुगन्धि को सूंघते हुए ही चोर सोना चुरा लेते। सेंट सुगन्धित द्रव्यों का कोई महत्त्व नहीं रहता, और सुगन्धि उड़ जाने के बाद सोने की कोई कीमत नहीं रहती, बेकार हो जाता।
       फलमिक्षुदण्डे- गन्ने के दण्डे पर यदि फल लगता तो सब लोग फल को ही खाना चाहते.. डण्डे से गुड़ बनाने की मेहनत कोई नहीं करता। गुड़ को साल-भर सुरक्षित रखकर मिठाइयां जो बनाते हैं वह प्रयोजन गन्ने के फल से सिद्ध नहीं हो सकता था। फल तो जल्दी सड़ जाता है गन्ने का डण्डा सड़ता नहीं भले ही सूख जाता है और जितना रस गन्ने के डण्डे से निकल आता है उतना रस फल से नहीं निकल पाता।
       तीसरा आक्षेप क्या है ? नाकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य- क्या होता यदि चन्दन के पेड़ पर फूल लगता ? जब तक फूल खिल रहा होता तब तक सुगन्धि रहती, फूल के मुरझा जाने पर सुगन्धि भी समाप्त हो जाती है। अब चन्दन की लकड़ी में सालों-साल जब तक वह लकड़ी है सुगन्धि बनी रहती है। चौथा आक्षेप- विद्वान् धनी; विद्वान् को परमात्मा ने धनी नहीं बनाया। क्या होता यदि विद्वान् के पास बहुत धन होता..? तो उसका दिमाग निन्यानवे के चक्कर में लग जाता। अय्याशी में जीवन बिताना चाहता, यदि सात्विक प्रवृत्ति का होगा विद्वान् तो कहां पर दान-पुण्य करुं ऐसे विचार में लगा रहता। भिक्षा पर जीते हुए शास्त्रों के रहस्यों को समझकर तपोमय जीवन जीते हुए ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति करके लोगों को समझाने का उसका मुख्य कार्य गौण हो जाता।
       अगला आक्षेप क्या है ? नृपतिर्दीर्घजीवी राजा को लम्बी आयु नहीं दी, यदि राजा को लम्बी आयु देता तो अराजकता फैलानेवाला राजा अराजकता फैलाता दूसरे श्रेष्ठ राजा को अवसर नहीं मिल पाता।
       अब उस आक्षेप पर विचार करते हैं- जो बहुत ही बड़ा आक्षेप था। जब मनुष्य योनि में रहकर ही जीवात्मा मोक्ष के रूप में परमात्मा का आनन्द पा सकता है तो बाकी तिरासी लाख निन्यानवे हजार (८३,९९,९९९) योनियों को बनाने की क्या आवश्यकता थी ? जिनके कारण मनुष्यों के जान-माल की बहुत हानि होती है। इसका समाधान करते हैं-
       जैसे किसी कंपनीवाला कोई वस्तु बनाता है, फ्रिज, कूलर, मोबाईल, वाशिंग मशीन आदि तो उस वस्तु की प्रयोगविधि एक बुकलेट के रूप में देता है। उस बुकलेट के निर्देशन के अनुसार यदि हम उस वस्तु का प्रयोग करते हैं तब हम उस वस्तु का लम्बे समय तक लाभ ले सकते हैं, अन्यथा उसे बिगाड़के दुःखी होते हैं।
       ठीक ऐसे ही परमात्मा ने भी सृष्टि को बनाते समय इस सृष्टि की प्रयोगविधि को वेदज्ञान के रूप में सृष्टि के आदि काल में अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा नामक ऋषियों को दिया। इस वेद के बारे में महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिक दर्शन के छठे अध्याय के प्रथम आह्निक के पहले सूत्र में कहा- 'बुद्धिपूर्वावाक्यकृतिर्वेदे' कहकर परमात्मा की बुद्धिमत्ता को प्रमाणित करते हुए प्रशंसा भी की और आश्चर्य भी प्रकट किया। जब वेद में परमात्मा एकेक वाक्य को बुद्धिपूर्वक कर सकता है तो क्या सृष्टि में  तिरासी लाख निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे योनियो को बिना बुद्धि के योंही निष्प्रयोजन बना सकता है , नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता।
       यद्यपि मनुष्य योनि में रहनेवाला जीवात्मा ही जन्म-मरण के चक्र से छूटकर परमात्मा का आनन्द मोक्ष के रूप में पा सकता है परन्तु शेष सभी मनुष्येतर प्राणी, मनुष्य को दीर्घ जीवन देने के लिए स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए और प्रकृति को सन्तुलित करने के लिए ही सहज ही अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं। जैसे- मधुमक्खी है, जो शहद बनाने में ही अपनला जीवन सार्थक समझती है। वह कभी अपने जीवन में यह नहीं सोचती कि थोड़ा समय वॉट्स एप में लगाऊँ, फेसबुक देख लूं, थोड़ा मनोरंजन कर लूं। पता है मधुमक्खी कितना पुरुषार्थ करती है ? वैज्ञानिकों के परीक्षणों के अनुसार एक मधुमक्खी शहद बनाने के लिए फूलों को रस चूसते-चूसते जितनी यात्रा करती है उसे गिना जाए तो एक लाख कि.मी. उड़ने पर एक किलो शहद बना पाती है। और शहद मनुष्यों को औषधि के रूप में काम आता है।
       आयुर्वेद में अलग-अलग बीमारियों में अलग-अलग ऋतुओं में बने हुए शहद का प्रयोग किया जाता है। ऋतु के अनुसार प्रकृति में फूल भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं इस लिए शहद भी भिन्न-भिन्न गुणों का होता है। विवाह संस्कार में वर के लिए दीर्घजीवन की कामना करते हुए वधू मधुपर्क देती है जिसमें शहद का प्रयोग होता है। गुरुकुल में निवास करते हुए अध्ययन पूरा करके समावर्तन संस्कार होने के बाद ब्रह्मचर्य आश्रम से निवृत्त होकर घर जाता हुआ स्नातक अपने आचार्य के लिए दीर्घजीवन की कामना करते हुए आचार्य को मधुपर्क खिलाकर जाता है। जिसमें शहद का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार मधुमक्खी के मेहनत से बना हुआ शहद मनुष्य को स्वास्थ्य एवं दीर्घजीवन देने में सहायक है। अब दूसरा प्राणी कछुआ; कछुए के शरीर पर कवच होता है। इस कवच को पत्थर पर घिस कर लेप लगाने पर बवासीर के गांठ पिघल जाते हैं। आयुर्वेद का एक ग्रन्थ है भेल संहिता। इस भेल संहिता के चिकित्सा स्थान के सोलहवें अध्याय के तिरासीवें श्लोक में महर्षि भेल ने बताया ''स्वर्णक्षीरी तुम्बीकयोर्बीजानि च रातकम् कुक्कुटस्य पुरीषं च स्नुहीक्षीरेण पेषयेत्'' (भेल सं.चि.स्था. १६/८२) अर्थात् स्वर्णक्षीर तुम्बिका के बीज इन्द्रजौ तथा मुर्गे की विष्ठा को थूहर के दूध के साथ पीसकर लेप लगाने से अर्श की गांठे एक सप्ताह में ही नष्ट हो जाते हैं, दुबारा जीवन में अर्श कभी नहीं होता।
       जहरीले प्राणियों में सांप एक प्राणी है जिसको बहुत दूर से देखने मात्र से ही मनुष्य भयभीत हो जाता है। वह सांप अपने जीवन में कई बार अपनी त्वचा को छोड़ देता है। उस छोड़े हुए त्वचा को कैंचुली कहते हैं। उल्लू सांप के कैंचुलियों को इकट्ठा करके उसको गद्दा जैसा बनाके उस पर अपने अण्डे देती है। और यह कैंचुली भयानक सिरदर्द को जो किसी भी औषधि से ठीक नहीं हो रहा हो तो मनुष्य के लिए औषधि के रूप में काम आती है।
       भेल संहिता के चिकित्सा स्थान के तेरहवें अध्याय के अड़तीसवें श्लोक में महर्षि भेल ने काले सांप को मनुष्य के लिए प्राणदाता बताया।
       जीविते संशयं कृत्वा गरलं जठरी पिबेत्।। ३७।। त्रपुसोर्वारुकं वापि मूलकं वापि दंशयेत् क्रुद्धेन कृष्णसर्पेण जठरी तानि भक्षयेत्।। ३८।। अर्थात् ताजा खीरा अथवा ताजी ककड़ी को क्रोधित सांप से कटवाये, उस सर्पदंशित खीरे को रोगी को खिलायें। यह तब करें जब रोगी पर कोई भी औषधि काम नहीं कर रही और रोगी असह्य वेदना में मरणासन्न स्थिति में जीवित है। वह ठीक हो जाएगा।
       और एक भयानक रोग होता है 'कुष्ठरोग'। इस रोग में मनुष्य की हाथ-पैर की ऊँगलियां गल-गल के कट-कट के गिरते रहते हैं। यह छूत की बीमारी होती है। ऐसा सुनते हैं कि कुष्ठरोगी को सांप काटता है तो उसका कुष्ठरोग ठीक हो जाता है। भेल संहिता के कल्पस्थान के नवम अध्याय के ३०-३१ श्लोकों में महर्षि भेल ने बताया- अविमूत्रमजामूत्रमुष्ट्रस्य महिषस्य च मृगस्य मूत्रं गोमूत्रं गर्दभस्य द्विपस्य च एतान्यष्टौ प्रयुञ्जीत पृथग्वा यदि वा सह त्रिवृच्चूर्णविमिश्राणि विलिह्यान्मधुनापि वा। (भेल सं. कल्पस्थान अ.९/३०, ३१) हरेक प्राणि के द्वारा खाया हुआ अन्न रस चूसने के बाद मल के रूप में बाहर निकलता है। यदि समय पर यह मल बाहर न निकला तो उस बीमारी को 'कब्ज' की बीमारी कहते हैं। कब्ज अन्य कई बीमारियों की जननी होती है। इस कब्ज के लिए अर्थात् भेड़, बकरी, ऊँट, भैंस, हिरण, गाय, गधा तथा मनुष्य इन आठ जन्तुओं के मूत्र को 'अष्ट-मूत्र' कहा जाता है। इन अष्टमूत्रों को मिलाकर अथवा अलग-अलग त्रिवृत् चूर्ण के साथ अथवा शहद के साथ सेवन करने से भयानक से भयानक कब्ज खुल जाता है।
       मिट्टी में एक प्राणी पैदा होता है जिसे हिन्दी में 'कैंचुआ' तेलगु में 'वानपामु' और अंग्रेजी में 'अर्र्थवार्म' कहते हैं। यह किसान की मेहनत को सफल करनेवाला दिव्य प्राणि है। यह मिट्टी को खाद के रूप में बदल देता है। परन्तु दुःख की बात यह है कि आज खेती में मनुष्य जिन रसायनों का कृत्रिम खाद का प्रयोग कर रहा है, उसमें यह प्राणी नष्ट होता जा रहा है।
       अब रही बात हाथी, ऊँट जैसे बड़े बड़े जानवरों की और भेडिया, शेर, चीता जैसे हिंस्रक पशुओ की, इन हिस्रक पशुओं के कारण ही जंगल बचे रहते हैं। घने जंगलों में रहनेवाले अन्य प्राणियों के कारण प्रकृति भी संतुलित रहती है और सकाल वर्षा भी होती है। जिसके कारण अच्छी खेती होती है। धरती पर तरह-तरह के अनाज, लाखों औषधियाँ उत्पन्न होते हैं। जिन्हें खाकर मनुष्य अपने शरीर को स्वस्थ, पुष्ट एवं बलिष्ठ कर लेता है।
       इसलिए यह आक्षेप गलत है कि मनुष्येतर प्राणियों के कारण मनुष्य के जान-माल की हानि होती है। मनुष्येतर प्राणियों के बिना तो मनुष्य एक पल भी जीवित नहीं रह सकता। मनुष्येतर प्राणियों के कारण ही मनुष्य का अस्तित्व है। मनुष्य भी तो अन्य प्राणियों के जान के लिए खतरा है। जैसे खेती करते समय किसान के हाथों कितने प्राणि मर जाते हैं उसकी कोई गिनती नहीं हो सकती। किसान की तो मजबूरी है खेती करते समय हल के नीचे कई क्षुद्र जन्तु मरते ही हैं। मनुष्येतर प्राणी तो आत्मसंकट के समय में ही आत्मरक्षा के लिए मनुष्य पर आक्रमण करता है। परन्तु मनुष्य तो मनोरंजन के लिए भी अन्य प्राणियों की जान ले लेता है, जो सरासर गलत है।
       होना क्या चाहिए चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों में से सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने के कारण, बुद्धिजीवी होने के कारण मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी सुरक्षा करते हुए इन सब प्राणियों के साथ मित्रवत् व्यवहार करे। यजुर्वेद के छत्तीसवें अध्याय का अट्ठारवाँ मन्त्र इस बात का उपदेश भी देता है- दृते दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।। (यजु. ३६/१८)
       अब हम अपने विषय पर लौट आते हैं- क्योंकि पांचों ज्ञानेन्द्रियां तथा पांचों कर्मेन्द्रियां विकसित होने के कारण चौरासी लाख प्रकार की योनियों में से सबसे उत्तम होने के कारण मनुष्य योनि में रहनेवाला जीवात्मा ही परमात्मा के आनन्द को मोक्ष के रूप में पा सकता है। इसलिए मनुष्य नित्यप्रति अपने जीवन में जो भी करता है उसमें परमात्मा के आनन्द को ढूंढता रहता है। उदाहरण के लिए वह सोचता रहता है कि मैं अच्छे से अच्छा खाना खाऊँगा मुझे आनन्द मिलेगा, अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनूंगा तो मुझे आनन्द मिलेगा, अच्छे से अच्छा घर बनाकर रहूंगा तो मुझे आनन्द मिलेगा, मैं अच्छे से अच्छे आभूषण पहनूंगा तो मुझे परमात्मा का आनन्द मिलेगा। मेंहगी से मेंहगी गाड़ियों में घूमूंगा तो मुझे आनन्द मिलेगा। हवाई जहाज में उडूंगा तो मुझे आनन्द मिलेगा। तीर्थयात्राओं पर जाऊँगा तो मुझे आनन्द मिलेगा। सुन्दर से सुन्दर पत्नी को ढूंढूंगा तो मुझे आनन्द मिलेगा। कोई सोचता है कि अधिक से अधिक पढूंगा तो मुझे आनन्द मिलेगा। अधिक से अधिक दान दूंगा, अधिक से अधिक सामाजिक कार्य करूंगा, दूसरों का भला करूंगा तो मुझे आनन्द मिलेगा। इसलिए व्यक्ति इन चीजों को पाने के लिए लगातार दौड़ लगाता रहता है। परन्तु इन सबमें परमात्मा का शाश्वत आनन्द न होकर केवल मात्र तात्कालिक सुख होता है। इसलिए साङ्ख्यकार कपिल ने तो इन सुखों को दुःख की संज्ञा देते हुए कहा है- ''तदपि दुःखशबलमिति दुःखपक्षे निःक्षिपन्ते विवेचकाः'' (सां. अ. ६, सू. ८) अर्थात् ये सभ्साी लौकिक सुख जिनको हम सुख मानते हैं, कालान्तर में दुःखदायी होने के कारण विवेकी विद्वानों ने इन सब सुखों को सुख की कोटि में न मानकर दुःख की कोटि में ही माना है। उदाहरण के लिए-
       हमें भूख लगी, हमने बहुत ही स्वादिष्ट भोजन खाया। अगले दिन उतनी ही भूख लगने पर वैसा ही स्वादिष्ट भोजन न मिलने पर दुःख होता है। बहुत महंगा मनपसन्द कपड़ा खरीदकर पहना, पहनने के बाद उस कपड़े पर दाग लग जाए या फट जाए तो दुःख होता है। बहुत मेहनत से लम्बे समय तक पैसा इकट्ठा किया, अच्छे से अच्छा घर बनाकर सुख से रहने लगे, भूकम्प आया घर गिर गया या बाढ़ से घर बह गया तो दुःख हुआ। जैसे-तैसे कुछ पैसा इकट्ठा करके, कुछ कर्जा लेकर कार खरीदी, सुख से घूम रहे थे, ट्रकवाले ने टक्कर मारी टूट गई, गाड़ी गई, कर्जा बचा, दुःख हुआ। बड़ा ही शिष्ट बेटा था, मजदूरी करते हुए पढ़ाया। पढ़-लिखकर वह योग्य बना, कमाने लायक हो गया। विवाह करा दिया, बहुत ही सुसंस्कारी बहू मिली, बेटे ने पिता को आश्वासन दिया अब आप लोग मजदूरी नहीं करोगे, मैं पैसा कमाऊँगा, बहू ने सासू-मां को सान्त्वना दी कि अब आप दूसरों के घरों में काम नहीं करोगे, दूसरों के झूठे बरतन नहीं मांजोगे, घर के सब काम भी मैं करूँगी। आप अपने होनेवाले पोते-पोतियों के साथ खेलते रहना। शेष जीवन आप लोग सुख से बिताना। दुर्भाग्यवश बहू ऐसी मिली शादी के अगले दिन से ही अपनी प्रवृत्ति दिखाने लगी। दो-तीन महिनों में तो उसने सास-ससुर-पति के ऊपर दुनियाभर के आरोप लगाते हुए कोर्ट में केस कर दिया। स्वयं मायके चली गई बूढ़े मां-बाप को जेल भिजवा दिया। अब जेल में पड़े-पड़े बूढे माता-पिता अपने बीते जीवन को याद कर-करके रोते रहते हैं, यह संस्कार दुःख है।
       जी हां आजकल कई परिवारो में ऐसा ही देखने को मिल रहा है। पहले कभी ऐसा समय था ससुराल में लड़कियों पर बहुत अत्याचार होता था। अब समय आया लड़कियाँ लड़कों पर हावी हो रही हैं। सहनशक्ति के प्रति स्त्री की तुलना धरती के साथ की गई है परन्तु आज की शिक्षा पद्धति ऐसी है कि लड़कियों में सहनशक्ति का नामोनिशान नहीं दीखता। वंश एवं गोत्र की गरिमा को वे नहीं समझतीं। छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा करके अपना गृहस्थ जीवन बरबाद कर रही हैं।
       दुर्भाग्यवश दुर्घटनाग्रस्त होकर बेटा-बहू दोनों मर गए। परमात्मा न करे ऐसा किसी के साथ हो, परन्तु ऐसी कई घटनाएं हमें देखने को मिलती हैं। क्या कर सकते हैं, लोगों को झेलना ही पड़ता है।
       इसलिए साङ्ख्यकार महर्षि कपिल ने इन सब सुखों को सुख की संज्ञा न देकर कालान्तर में दुःखदायी होने के कारण इन्हें दुःख की ही संज्ञा दी है। इसी विषय पर योगदर्शनकार पतञ्जलि का चिन्तन कुछ इस प्रकार है- महर्षि पतञ्जलि ने अपने योगदर्शन के दूसरे पाद के पद्रहवें सूत्र में कहते हैं-
       ''परिणामतापसस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः'' अर्थात् इन लौकिक सुखों के पीछे परिणाम-दुःख, ताप-दुःख और संस्कार-दुःख मिलते हैं। इसलिए इन लौकिक सुखों में जो आनन्द की अनुभूति होती है वह वास्तविक आनन्द न होकर तात्कालिक सुख होता है। अब सुत्र में वर्णित एकेक प्रकार के दुःख पर विचार करते हैं-
       पहला है परिणाम-दुःख- परिणाम-दुःख क्या है ? इस पर चिन्तन करते हैं- एक व्यक्ति को मिठाई खाना बहुत अच्छा लगता है। उसने पर्याप्त जिलेबी, रसगुल्ले, गुलाबजामुन खा लिए। परन्तु वह डायबिटीस का रोगी था। परिणामस्वरूप उसका शुगर बहुत बढ़ गया। उसकी किडनी बेकार हो गई। उसे हार्ट एटैक हो गया। उसका रक्तचाप बढ़ने से दिमाग में रक्तवाहिनी नलिकाएं फट गईं। उसे लकुआ हो गया। लाचार होकर वह पलंग पर पड़ा रहा, न मौत ही आती है और न हि जीवित लोगों में उसकी गिनती होती है। यह सब उसे मिठाइयां खाने के फलस्वरूप मिला हुआ परिणाम-दुःख है। तो मिठाई खाना दुःख का कारण बना न..!!
       दूसरा है ताप दुःख- ताप दुःख क्या होता है ? कोशिश करते हैं ताप दुःख को अच्छी तरह समझाने की। आर्थिक स्तर से मध्यम वर्गीय व्यक्ति बड़ी मुश्किल से एक-एक पैसा जोड़कर पांच लाख इकट्ठा करता है और एक छोटी सी गाड़ी खरीद लेता है। उस गाड़ी में सुख से घूम रहा होता है। कुछ दिनों में पड़ोसी भी दस लाख की एक गाड़ी खरीदता है। और वह भी अपनी गाड़ी में घूमता रहता है। अब इस व्यक्ति को अपनी पांच लाख की गाड़ी से कोई कष्ट नहीं है, परन्तु उस पड़ोसी की दस लाख की गाड़ी से अवश्य कष्ट है। उसकी दस लाख की गाड़ी के सामने अपनी पांच लाख की गाड़ी को पार्क करता है तो उसके सामने अपनी गाड़ी फीकी लगने लगती है। इसने इतनी अच्छी गाड़ी कैसे खरीदी। काश मैं भी ऐसी गाड़ी खरीद पाता। अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहता है, यह ताप दुःख कहलाता है।
       तीसरा है संस्कारदुःख- अब संस्कारदुःख का विश्लेषण करते हैं- एक छोटा सा बच्चा होता है वह अपनी मां के अतिनिकट होता है। यह तो जगत्प्रसिद्ध बात है कि बच्चा अपनी माता के निकट होता है और उसे अपनी मां पर परमविश्वास होता है कि मेरी मां के होते हुए मुझे कोई भी किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं दे सकता। इस विश्वास और निड़रता के साथ जैसे-जैसे वह बच्चा बड़ा होता रहता है, उसमें धीरे-धीरे उद्दण्डता बढ़ती रहती है। अब पिता यह सोचता है कि इस बच्चे के भविष्य को सुधारने के लिए मां-बेटे को अलग करना चाहिए। और वह पिता पढ़ाई के बहाने बच्चे को गुरुकुल में भेजता है अथवा किसी होस्टल में रखता है। घर में मां बच्चे की बहुत सेवा करती थी। जो चीज चाहता वह पकाकर खिलाती थी। उसके कपड़े धोती, उसके साथ खेलती, उसे अपने गोद में सुलाती थी। बच्चा कोई उद्दण्डता करता, किसी को हानि पहुंचाता वा अपमान करता, तब भी अपने बेटे का ही पक्ष लेती तथा उसे दण्ड मिलने से बचाने के लिए अन्यों से लड़ाई-झगड़ा भी कर लेती।
       अब जबरदस्ती गुरुकुल में भेजा गया वह बच्चा मां की सेवाओं को याद कर-करके रोता रहता है। इधर मां भी घर में बच्चे को याद कर-करके रोती रहती है और सोचती रहती है कि कहीं मेरे बच्चे की उद्दण्डता पर उसकी पिटाई तो नहीं हो रही होगी ? यही संस्कारदुःख कहाता है।
       इससे यह सिद्ध हुआ कि इन लौकिक सुखों में परमात्मा का शाश्वत आनन्द नहीं मिलता। तो अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर परमात्मा का आनन्द कब मिलता है ? साङ्ख्यकार कपिल ने अपने साङ्ख्यदर्शन के पांचवे अध्याय के उनासीवें सूत्र में प्रक्षिप्त सूत्रों को मिलाकर ११६ वे में ''समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता'' (सां.द.अ.५-७९/११६) कहकर इस प्रश्न का समाधान किया। अर्थात् समाधि स्थिति में, सुषुप्ति स्थिति में तथा मोक्षावस्था में जीवात्मा को परमात्मा का आनन्द मिल जाता है। अब यह जानना पड़ेगा कि समाधि-सुषुप्ति-मोक्ष क्या है ?
सुषुप्ति :-
       सबसे पहले सुषुप्ति को लेते हैं- सुषुप्ति अवस्था क्या होती है ? नृसिंहपूर्वतापिनी उपनिषद् के चौथे अध्याय के छठे खण्ड में सुषुप्ति की परिभाषा इस प्रकार की गई है- ''यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम्।'' (नृसिंहपूर्वतापिनी उपनिषद् अ.४ खं. ६) जिस अवस्था में सोता हुआ मनुष्य किसी कामना को नहीं रखता, कोई स्वप्न नहीं देखता, वह सुषुप्ति अवस्था है। इस सुषुप्ति अवस्था में जीवात्मा परमात्मा के आनन्द का अनुभव करता है। इस सुषुप्ति अवस्था में मनुष्य को विवेकज्ञान नहीं होता है परन्तु शरीर इसके साथ बना रहता है। इस सुषुप्ति अवस्था में सभी प्राणी परमात्मा के आनन्द की अनुभूति कर लेते हैं। जैसे जब हम बेहद थक जाते हैं, तब सो जाते हैं। सोक र जगने के बाद हम अनुभव करते हैं कि हमें नई शक्ति, नई चेतना मिली है। जब हमें असह्य पीड़ा और वेदना होती है, तब हम बेहोश हो जाते हैं, बेहोशी के बाद जब हमें होश आता है तो हमें अनुभव होता है कि हमें नई चेतना मिली है। ऐसा क्यों होता है ? क्योंकि सुषुप्ति अवस्था में जीवात्मा का परमात्मा से मेल हो जाता है।
       योगदर्शनकार पतञ्जलि ने इस सुषुप्ति स्थिति को निद्रावृत्ति कहा है। ''अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा'' (योग.पाद १ सूत्र १०) अर्थात् जिस समय मनुष्य को किसी भी विषय का ज्ञान न रहकर केवलमात्र ज्ञान के अभाव की ही प्रतीती रहती है वह निद्रावृत्ति है। जो निद्रा जगने के बाद मनुष्य के शरीर में आलस्य तथा तन्द्रा भर दे, जगने के बाद मनुष्य को किसी कार्य में प्रवृत्त न होने दे तो वह निद्रावृत्ति क्लिष्टवृत्ति है। जो निद्रा जगने के बाद मनुष्य के शरीर में सात्विकता भर दे, मन तथा इन्द्रियो को चुस्त-दुरुस्त कर दे वह निद्रावृत्ति अक्लिष्ट निद्रावृत्ति है। इस अक्लिष्ट निद्रावृत्ति की प्रशंसा करते हुए भगवद्गीता के छठे अध्याय के १७ वें श्लोक में महर्षि व्यास जी बताते हैं- ''युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।'' (गीता अ. ६/ श्लोक १७) अर्थात् यथायोग्य सात्विक आहार-विहार करनेवाले यथायोग्य सात्विक कर्मों को करनेवाले तथा यथायोग्य सोने और जगनेवालों में ही दुःखों का नाश करनेवाला योग सिद्ध होता है। अर्थात् निद्रा भी उचित मात्रा में ही होनी चाहिए। न अधिक न कम। क्योंकि आयुर्वेद में बताया ''त्रयः स्तम्भाः शरीरस्य आहारं निद्रा ब्रह्मचर्यञ्चेति''
       इस निद्रावस्था में अथवा सुषुप्ति में जीवात्मा को विवेकज्ञान के बिना ही परमात्मा का आनन्द प्राप्त होता है। अब शङ्का यह उत्पन्न हो रही है कि यह विवेकज्ञान क्या होता है ? पाणिनीय धातुपाठ के रुधादिगण का पांचवाँ सूत्र है 'विचिर् पृथग्भावे' विशेष अर्थवाले वि उपसर्गपूर्वक इस धातु से अष्टाध्यायी के तीसरे अध्याय के तीसरे पाद के १८ वें सूत्र 'भावे' से घञ् प्रत्यय होकर 'विवेक' शब्द बनता है। इसके अनुसार इस विवेक शब्द का अर्थ है- ईश्वर-जीव-प्रकृति को अलग-अलग समझने का विशेषज्ञान विवेकज्ञान कहलाता है। यह विवेकज्ञान हो जाए तो मनुष्य को और कुछ जानने की इच्छा या अपेक्षा नहीं रहती। इसलिए योगदर्शनकार पतञ्जलि ने इस विवेकज्ञान की विशेषता बताते हुए योगदर्शन के तीसरे विभूतिपाद के चौव्वनवें सूत्र में कहते हैं- ''तारकं सर्वविषयं सर्वथा विषयमक्रं चेति विवेकजं ज्ञानम्'' (यो.द. ३/५४) अर्थात् संसार सागर से तरानेवाला, सबको सब प्रकार से जनानेवाला, इसके बाद और कुछ जानना शेष नहीं बचता ऐसा सर्वोत्कृष्ट ज्ञान विवेकज्ञान कहलाता है। सुषुप्ति स्थिति में अथवा निद्रावस्था में इस विवेकज्ञान के बिना ही जीवात्मा को परमात्मा का आनन्द मिल जाता है। इसलिए सोकर जगने के बाद हर प्राणी यह अनुभव करता है कि उसे नई चेतना मिली है। इस सुषुप्ति अथवा निद्रावस्था में हरेक प्राणी परमात्मा के आनन्द को पा लेता है।
       यदि ऐसी बात है तो जितने भी नशीले पदार्थों का सेवन करनेवाले हैं, शराब पीनेवाले हैं वो ठीक कहते हैं। नशा किया, नीन्द आई, सुषुप्ति मे पहुंच गए। बिना किसी विवेक-वैराग्य के परमात्मा का आनन्द पा लिया। क्यों जी ठीक है न..? जी नहीं, ठीक नहीं करते। यह बिल्कुल गलत है, निद्रा स्वाभाविक ही होनी चाहिए। शरीर को पर्याप्त थका देने पर जो निद्रा आती है वह स्वाभाविक निद्रा होती है और यह अक्लिष्ट होती है। नशीले पदार्थों के सेवन से जो निद्रा आती है, जो सुषुप्ति मिलती है उससे मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और नाड़ीतन्त्र पर कुप्रभाव पड़ता है। इस विषय में महर्षि भेल ने अपनी भेलसंहिता के सूत्रस्थान के सत्ताइसवें अध्याय में चौथे श्लोक में कहते हैं- ''मधु चाप्यथ सन्धत्ते जर्जरीकुरुते सुरा'' (भे.सं. सूत्रस्थान अ. २७ श्लोक ४) जहां शहद शरीर को दृढ़ बनाता है वहीं सुरा यानी मादक द्रव्य शरीर को जर्जर कर देते हैं।
       आगे चिकित्सा स्थान के अट्ठाइसवें अध्याय के छठे, सातवें, आठवें श्लोकों में महर्षि भेल कहते हैं-
''मद्यावचारणात्तस्य कुपितौ पित्तमारुतौ।
शोषयेतां रसवहाः सिराः क्लोम च तालु च।।
तृषापरीतस्सोऽत्यर्थं पानमेवाभिनन्दति।
पीतं पीत शोषयतो देहे तस्याग्निमारुतौ।।
अच्छत्याशु जरां देहे सिकतायामिवोदकम्।
तस्मादहोरात्रमपि पिबतः पानसेविनः।।''
       अर्थात् जब व्यक्ति मद्यपान करता है तब उसके शरीर में पित्त तथा वायु दोनों प्रकुपित होकर रसवाही स्रोतों को क्लोम तथा तालु को सुखा देते हैं। शराब पीते पीते उसके शरीर में अग्नि एवं वायु सूख जाते हैं। अन्ततोगत्वा वह इतनी शीघ्रता से बूढ़ा हो जाता है जितनी शीघ्रता से रेत में पानी सूख जाता है। इसलिए नशीले पदार्थों से मिलनेवाली सुषुप्ति स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही नहीं अपितु आयु को घटानेवाली भी होती है। इसलिए नशीले पदार्थों से मिलनेवाली सुषुप्ति अथवा निद्रा सर्वथा त्याज्य है।
समाधि
       सुषुप्ति के बाद समाधि को लेते हैं। समाधि स्थिति में भी जीवात्मा परमात्मा के आनन्द का अनुभव करता है। अब यह जानना है कि समाधि क्या है ? इस पर विचार करते हैं। जब जीवात्मा अपने मन को परमात्मा में एकाग्र करके निरन्तर ध्यान का अभ्यास करता है तो वह ध्यान की स्थिति परिपक्व होने पर समाधि की अवस्था को पा लेता है। इस बात की पुष्टि करते हुए योगदर्शनकार पतञ्जलि ने अपने योगदर्शन के तीसरे पाद के दूसरे तथा तीसरे सूत्रों में ध्यान एवं समाधि की परिभाषा बताते हुए कहते हैं- ''तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।'' (योग. ३/२,३)
       इस समाधि अवस्था में जीवात्मा को प्रकृति पुरुष एवं परमात्मा की पृथकता का विवेकज्ञान भी होता है। और शरीर भी साथ में रहता है। यह केवल मनुष्ययोनि में रहनेवाले जीवात्माओं के लिए ही सम्भव है। क्योकि इस विवेकज्ञान के लिए पांचों ज्ञानेन्द्रियां एवं पांचों कर्मेन्द्रियों को विकसित होना अनिवार्य है।
मोक्ष
       अब उत्तम मोक्षावस्था को जानने का प्रयास करते हैं- यह मोक्षावस्था क्या है ? किसे मोक्ष कहते हैं ? वैशेषिककार कणाद अपने वैशेषिक दर्शन के पांचवे अध्याय के दूसरे आह्निक के १८ वें सूत्र में कहते हैं- ''तदभावे संयोगाभावोऽप्रादुर्भावश्च मोक्षः।'' (वैशे.५/२/१८) अर्थात् मिथ्याज्ञान नष्अ होकर जब विवेकज्ञान जगता है तब आत्मा का प्रारब्ध कर्मफल पूरा होने से मनुष्य का वर्तमान शरीर छूट जाता है। बाद में उस आत्मा के लिए अन्य शरीर का प्रादुर्भाव नहीं होता। यानि दूसरा शरीर नहीं मिलता। अर्थात् वह आत्मा जन्म-मरण के चक्र से बाहर निकल जाता है इसका नाम मोक्ष है। इस मोक्षावस्था में आत्मा को विवेकज्ञान तो होता है, परन्तु शरीर छूट जाता है। क्या होता है जब आत्मा मोक्ष में जाता है ? मुण्डकोपनिषद के तीसरे मुण्डक के द्वितीय खण्ड के छठे श्लोक में महर्षि मुण्डक इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं- ''ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमृच्यन्ति सर्वे।'' अर्थात् वे आत्माएं जन्ममरण के चक्र से छूटकर ब्रह्मलोक में पहुंचकर परान्तकाल तक परमात्मा के आनन्द का अनुभव करते रहते हैं। अब शंका यह उठती है कि ये परान्तकाल क्या है ? कितना होता है ? जीवात्मा के लिए मोक्षावस्था का काल परान्तकाल कहलाता है। यह इकत्तीस नील, दस खरब, चालीस अरब वर्षों (३१,१०,४०,००,००,००,०००) का होता है।
       इसलिए मानव जीवन का एकमात्र अन्तिम लक्ष्य उस परमात्मा के आनन्द को पाना ही होना चाहिए। क्योंकि विश्वकर्मवास्तुशास्त्र के सत्तासीवें अध्याय का प्रथम श्लोक है- ''दुर्लभं मानवं जन्म कथितं शास्त्रपारगैः। तदवाप्य बुधो लोके महत्सम्पादयेत्फलम्।।'' (विश्वकर्मवास्तुशास्त्र ८७/१)
       अर्थात् शास्त्रों के ज्ञान में पारंगत विद्वानों का यह कहना है कि मानव जन्म बहुत कठिनाई से मिलता है इसलिए इस दुर्लभ मानवजन्म को पाकर बुद्धिमान मनुष्य को महान फल का सम्पादन करना चाहिए। अन्यथा मानव जन्म व्यर्थ है।
       आयुर्वेद के ग्रन्थ चरकसंहिता के शरीरस्थान के तीसरे अध्याय के सोलहवें श्लोक में आचार्य चरक ने कहा- ''चतुर्विधा भूतानां योनिर्भवति जराखण्डस्वेदोद्भिदः।'' (चरक शारीरस्थान अ.३ श्लोक १६) अर्थात् प्राणियों की योनियां चार प्रकार की होती हैं- जरायुज, अण्डज, श्वेदज और उद्भिज।
       गरुडपुराण के प्रेतकल्प के धर्मप्रकटन नामक द्वितीय अध्याय में कहा- ''एकविंशति लक्षाणि ह्यण्डजाः परिकीर्तिताः स्वेदजाश्च तथैवोक्ताः उद्भिज्जास्तत्प्रमाणतः जरायुजाश्च तावन्तो मनुष्याद्याश्च जन्तवः सर्वेषामेव जन्तूनां मानुषत्वं सुदुर्लभम्।'' (गरुडपुराण अ. २) अर्थात् २१ लाख प्र्रकार की अण्डज योनियां हैं, २१ लाख प्र्रकार की उद्भिज योनियां हैं, मनुष्य सहित २१ लाख प्र्रकार की जरायुज जन्तु हैं। इन सब जन्तुओं में मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है।
       बृहद्विष्णुपुराण में कहा- ''जलजा नवलक्षाणि स्थावरा लक्षविंशतिः कृमयो रुद्रसंख्याकाः पक्षिणां दशलक्षकम् त्रिंशल्लक्षाणि पशवश्चतुर्लक्षाणि मानवाः। सर्वयोनिं परित्यज्य ब्रह्मयोनिं तथोऽभ्यगात्।'' कर्मविपाक नामक ग्रन्थ में कहा- ''स्थावरास्त्रिंशल्लक्षश्च जलजो नवलक्षकः कृमिजाः दशलक्षश्च रुद्रलक्षश्च पक्षिणः। पशवो विंशलक्षश्च चतुर्लक्षश्च मानवाः। एतेषु भ्रमणं कृत्वा द्विजमुपजायते। इतनी कठिनाई से मनुष्यजन्म मिलता है इसलिए मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को पाना ही होना चाहिए। क्योंकि केनोपनिषद के दूसरे खण्ड के पांचवें श्लोक में महर्षि कठ चेतावनी देते हैं- ''इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यस्माँल्लोकादमृताः भवन्ति।'' (केन २/५)
       इतनी कठिनाई से मनुष्य जन्म मिलता है, इसलिए सभी वेद सभी शास्त्र मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य उस परमात्मा के परमपद मोक्षानन्द को पाना ही बताते हैं। कठोपनिषद के द्वितीय वल्ली के पंद्रहवें श्लोक में महर्षि कठ उपदेश देते हैं- ''सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि ओमित्येतत्।'' अर्थात् सभी वेद जिस पद का प्रतिपादन कर रहे हैं, सभी तप जिस पद को चाहते हुए तपे जा रहे हैं, जिस पद को चाहते हुए सभी लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को अति संक्षेप से कहता हूँ सुनो वही 'ओ३म्' है। यह ओ३म् क्या है ? अथर्वशिखोपनिषद के पहले अध्याय के दसवे खण्ड में बताया- ''सकृत् उच्चरितमात्रेण ऊर्ध्वमुन्नाययति इति ओंकारः।'' (अथ. श. उ. १/१०) शङ्खस्मृति के बारहवें अध्याय के दसवें सूत्र में कहा है- ''ओंकारः प्रणवाख्य'' अथर्वशिखोपनिषद अध्याय ४४ में कहा है- ''यः ओंकारः सः प्रणवाख्यः'' यह प्रणव क्या होता है ? योगदर्शनकार पतञ्जलि अपने योगदर्शन के पहले पाद के सत्ताइसवें सूत्र में कहते हैं- ''तस्य वाचकः प्रणवः'' उसका वाचक शब्द प्रणव है। अब शङ्का उठती है कि उसका याने किसका वाचक ? बोधायन धर्मसूत्र के दूसरे प्रश्न के अट्ठारहवें खण्ड के दसवें अध्याय का बत्तीसवां सूत्र कहता है- ''प्रणवो ब्रह्म'' प्रणव ही ब्रह्म है। ध्यानबिन्दूपनिषद् के नवम अध्याय में कहा- ''ओमित्येक्षरं ब्रह्म'' यह ब्रह्म क्या है ? रामोत्तरतापिनी उपनिषद् के दूसरे अध्याय के तीसरे खण्ड में बताया- ''तारकत्वात् ओ३म् तारको भवति तदेव तारकं ब्रह्मत्वं विद्धि'' (रामोत्तरतापिनी उपनिषद् २/३) अशित्रोपनिषद् के ५३ वें खण्ड ''यस्मादुच्चार्यमाण एव बृहति बृंहति तस्माद् उच्यते परब्रह्म'' (अशित्रोपनिषद् ५३) तैत्तिरीयोपनिषद् के ब्रह्मानन्दवल्ली के प्रथम अनुवाक् के प्रथम खण्ड में कहो है- ''सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म'' (तैत्ति. २/१/१) महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में कहते हैं- ''यो अखिलं जगन्निर्माणेन बृंहति वर्धयति स ब्रह्म'' अर्थात् जो सम्पूर्ण जगत् को रचकर बढ़ाता है वही ब्रह्म है। वज्रसूचिकोपनिषद् के नवम अध्याय में ब्रह्म के बारे में कहा है- ''सच्चिदानन्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेत्'' अर्थात् सच्चिदानन्दस्वरूपवाला आत्मा जिसके बराबर दूसरा कोई नहीं है, ऐसे अद्वितीय परमात्मा को ही ब्रह्म समझना चाहिए।
       वाक्यपदीयम् के वाक्यकाण्ड के २३७ वें श्लोक में इस ब्रह्म के बारे में भर्तृहरि जी कहते हैं- ''आदिमद् ब्रह्म शाश्वतम्'' अर्थात् सृष्टि के आदि से रहनेवाला ब्रह्म ही शाश्वत है।
       जो हम पहले कह आए थे कि सच्चिदानन्दस्वरूपवाला आत्मा जिसके बराबर अन्य कोई आत्मा ही नहीं है, वह सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान् होने से उसे हम परम-आत्मा की संज्ञा देते हैं। वही ब्रह्म है यह सिद्ध हुआ।
       उस अद्वितीय शाश्वत परब्रह्म को पाना ही मनुष्यजन्म का मुख्य लक्ष्य है। अन्य सब घर-बार, खाना-पीना, पत्नी-बच्चे साधन मात्र हैं। इसलिए मनुष्य जन्म को पाकर यदि हमने परमात्मा के आनन्द को यदि मोक्ष के रूप में नहीं पाया तो हमारा एक जन्म व्यर्थ गया। मानो हम जीवन की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए। हमें इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए। क्योंकि केनोपनिषद् के दूसरे खण्ड के पांचवें श्लोक में महर्षि केन चेतावनी देते हैं- ''इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः'' अर्थात् इस मनुष्य जन्म में उस परमात्मा को पा लिया तो ठीक है, अन्यथा महान् हानि है। जिसकी पूर्ति कर पाना पुनः करोड़ों वर्षों तक असम्भव है।
      इसलिए इस जीवनरूपी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए हमें निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए। प्रयास करते-करते यदि हम सफल नहीं हो पाए तो कोई बात नहीं क्योंकि लगातार प्रयत्नशील रहने से इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में सफल हो ही जाएंगे। परन्तु प्रयास नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के ४७ वें श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- ''मा कर्मफलहेतुर्भूः मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि'' अर्थात् प्रयास करने पर भी हमें वांछित फल नहीं मिला करके हमें प्रयास छोड़कर आलस्य में नहीं रहना चाहिए। निरन्तर उस परम लक्ष्य को पाने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
       अबदूसरी शंका यह बच गई कि वह परमात्मा या परब्रह्म कहां मिलता है ? सीधी बात है, जो वस्तु जहां होती है वहीं मिलती है। कोयले के खान में कोयला मिलता है और सोने के खान मे सोना। पानी के कुँए में पानी और पेट्रोल के कुँए में पेट्रोल मिलता है। तो परमात्मा भी जहां होता है वहीं मिलता है। तो परमात्मा कहां है ? भगवद्गीता के १८ वें अध्याय के ६१ वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है- ''ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति'' अर्थात् ईश्वर सभी प्राणियों के हृदयदेश में रहता है। इसका समर्थन करते हुए शङ्खस्मृति के सातवें अध्याय के १६, १७, १८ वें श्लोक में इस प्रकार कहा है-
       ''हृदिस्थाः देवताः सर्वाः हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः हृदि ज्योतींषी सूर्यश्च हृदि सर्वं प्रतिष्ठितम् सर्वदेहसरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ध्याननिर्मथनाभ्यासाद्विष्णुं पश्येद्धृदि स्थितम् हृदर्कश्चन्द्रमाः सूर्यः सोमो मध्ये हुताशनः तेजो मध्ये स्थितं तत्त्वं तत्त्वमध्ये स्थितोऽच्युतः'' इन सब महर्षियों ने परमात्मा का वास हृदय मे बताया। इसलिए ईश्वर हृदयस्थान में ही मिलेगा।
       अब शंका उठ रही होगी कि ईश्वर की व्याख्या प्रारम्भ करते हुए मैंने कहा था कि यजुर्वेद के ३२ वें अध्याय के आठवें मन्त्र में   कहा गया है कि ''स ओतःप्रोतश्च विभूः प्रजासु'' अर्थात् वह परमात्मा इस सम्पूर्ण सृष्टि में ओतःप्रोत है, सर्वव्यापक है। और अब कह रहा हूं कि हृदय में रहता है, इसलिए हृदय में मिलेगा। वह सर्वव्यापक होने से सर्वत्र मिलना चाहिए। यहां वदतो व्याघात हो रहा है। अर्थात् या तो ईश्वर की सर्वव्यापकता वाली बात गलत है या तो अर्जुन को कृष्णोपदेश में कहे हृद्देशवाली बात गलत है। अब इन दोनो बातों का समन्वय कैसे करेंगे ? आकाश में अर्णव मे भाप के रूप में पानी है, सो उस पानी को पीने के लिए प्लेन का टिकट बनाकर प्लेन में बैठकर आकाश में उड़ेंगे क्या ? नहीं न..!! समुद्र में पानी होता है, प्यास लगी है तो चलो हिन्द महासागर में जाकर पानी पीकर आते हैं। अकेले क्या जाएंगे, दो-चार लोग मिलकर जाएंगे यात्रा में अच्छा मन लगेगा। ऐसा करनेवाला कोई बुद्धिमान् होगा ? नहीं न..!! हमारे घर में रसोई में पीने के निमित्त से मिट्टी के घड़े में भरा हुआ फिल्टर किया हुआ पीने योग्य स्वच्छ पानी को ही पीएंगे। है न..!!
       ठीक इसी प्रकार सर्वव्यापक होने पर भी परमात्मा हमें वहीं मिलेगा जो हमारे शरीर में हृदय में रहता है। इस बात की पुष्टि करते हुए श्वेताश्वतरोपनिषद् के चौथे अध्याय के बीसवें श्लोक में महर्षि श्वेताश्वतर कहते हैं- ''हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति'' (श्वे. ४/२०)
       अब शंका यह उठती है कि आखिर हृदय किसे कहना चाहिए ? किसको हृदय कहते हैं ? यह क्या काम करता है ? संस्कृत भाषा के व्याकरण के अनुसार शब्द व्युत्पत्ति प्रक्रिया में हृदय की परिभाषा इस प्रकार होती है- हृदय शब्द में तीन क्रियाएं हैं- पहला है हृञ् हरणे- पाणिनीय धातुपाठ के भ्वादिगण का ६४० वां सूत्र। दूसरा डुदाञ् दाने- पाणिनीय धातुपाठ के जुहोत्यादिगण का नवम सूत्र। तीसरा है या प्रापणे- पाणिनीय धातुपाठ के अदादिगण का ४२ वां सूत्र। अब इन तीनों क्रियाओं को मिलाने पर हृदय शब्द का अर्थ बनता है- हरति, ददाति, याति इति हृदयम्। हरति अर्थात् लेता है, ददाति अर्थात् देता है, याति अर्थात् चलता रहता है। इस परिभाषा के अनुसार हमारे शरीर में कितने हृदय हो सकते हैं ? क्या आप जानते हैं अथवा कल्पना कर सकते हैं  कि हमारे शरीर में एक से अधिक हृदय भी हो सकते हैं। जी हां हमारे शरीर में कुल तीन हृदय होते हैं। कौन-कौन से ? प्रथम हृदय है नाभि जो सम्पूर्ण भेजन रसों को लेता है। लेकर सारे शरीर को देता है। इस प्रकार चलायमान रहता है। अपने-अपने नाभि पर हाथ रखकर देखिए चल रहा है कि नहीं ? यह नाभि यदि अपने स्थान से हट जाए तो कितना कष्ट होता है आपको पता होगा। दस्त लगते हैं पेट में असह्य पीड़ा होती है।
       दूसरा हृदय है दिल जिसे रक्त प्रक्षेपक अङ्ग कहना चाहिए। यह भी सम्पूर्ण शरीर में से गन्दे खून को लेता है। शुद्ध होने के बाद उस शुद्ध खून को सम्पूण शरीर को देता है। इस प्रकार यह हृदय चलायमान रहता है। अपने-अपने दिल पर हाथ रखकर देखिए चल रहा है कि नहीं चल रहा ? चल रहा है न..!! तीसरा हृदय है भृकुटि। जी हाँ भृकुटि भी एक हृदय है। भृकुटि सभी ज्ञानतन्तुओं के द्वारा शरीर के सभी अङ्गों से ज्ञान पाता है और सभी अङ्गों को आज्ञा भी देता है। जैसे हम बड़ी गम्भीरता से पढ़ रहे हैं और हमारे पैर में मच्छर काट रहा है वहाँ पर जलन मच रही है, यह सूचना अपने आप भृकुटि में स्थित हृदय को पहुंच जाती है और हाथ को आज्ञा मिल जाती है कि उस मच्छर को हटाओ, वहां पर खुजाओ। इस प्रकार भृकुटि मे स्थित हृदय भी सक्रिय रहता है।
       अब आप बताइए इन तीनों हृदयों में से कहां के हृदय में जीवात्मा का वास सम्भव है ? जिस हृदय में जीवात्मा का वास होगा उसी हृदय में परमात्मा भी होगा।
       गीता के अनुसार ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति प्रमाण के अनुसार यह निश्चित है कि जो विशेष वस्तु, अमूल्य वस्तु, अद्वितीय वस्तु होती है वह पक्के एवं सुरक्षित जगह पर होती है। अब आप बताइए हमारे शरीर में कौन सा हिस्सा सबसे ज्यादा पक्का होता है ? खोपड़ी, है न..!! तो इसी खोपड़ी के अन्दर जो हृदय है उसी में ही जीवात्मा का वास सम्भव है। ईश्वर सर्वव्यापक होने पर भी इसी हृदयस्थान में जीवात्मा के अन्दर विद्यमान परमात्मा का ही सुषुप्ति और समाधि स्थिति में हम अनुभव कर सकते हैं। इस बात को प्रमाणित करते हुए महाभारत के वें अध्याय के वें श्लोक में महर्षि व्यास जी कहते हैं- ''स आत्मा पुरुषव्याघ्र भ्रुवोरन्तरमाश्रितः बुद्धिं द्रव्येषु सृजति विविधेषु परावरान्'' अर्थात्
       माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण के चौदहवें काण्ड के पांचवें अध्याय के पहले ब्राह्मण के २१ वीं कण्डिका में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं- ''हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिः सहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवसृत्य पुरीतति।'' अर्थात् हिता नामक ७२००० नाड़िया हृदय से चलकर शरीर के सभी अङ्गों तक पहुंचती हैं। इन्हीं नाड़ियों के द्वारा जीवात्मा सम्पूर्ण शरीर का ज्ञान पाता है।
       इसी हृदय के बारे में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश दे रहे थे। इसी हृदय में जीवात्मा रहता है। इस जीवात्मा के अन्दर जो पामात्मा है वही हमें उपलब्ध होता है पीने के पानी की तरह। इसलिए भृकुटि में मन को एकाग्र करके ध्यान लगाकर ओ३म् का जप करते हुए विवेकज्ञान सहित समाधि स्थिति को पाने पर शरीर सहित जीवात्मा को परमात्मा को आनन्द मिल जाता है। समाधि स्थिति परिपक्व हो जाने पर शरीरधारक जीवात्मा के मनः कर्म के अभाव होने पर शरीर से आत्मा के संयोग का अभाव और शरीरान्तर का प्रादुर्भाव न होने पर जन्म-मरण के चक्र से छूटकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
       इत्योम् शम्
       ओ३म् शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्यमा। शन्नो इन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुरुक्रमः। नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मवादिषम् ऋतमवादिषम् सत्यमवादिषम् तन्मामावीत्तद्वक्तारमावीदावीन्मां वक्तारम् ।। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आज का वेद मंत्र

पाकिस्तान का हिंदू न घर का है न घाट का

आक्रामकता में ही बचाव निहित है।