धर्म का स्वरूप

धर्म का स्वरूप



साभार -धर्म -शिक्षा 
लेखक -स्वामी  जगदीश्वरानन्द सरस्वती 


धर्म का स्वरूप
धर्म क्या है जिस विषय में सबकी एक सम्मति हो वह धर्म और उससे विपरीत अधर्म है। जैसे विद्या पढने, ब्रह्मचर्य पालने, सत्यभाषण करने, युवावस्था में विवाह करने, सत्संग-पुरुषार्थ-सत्य-व्यवहार करने में धर्म और अविद्या-ग्रहण, ब्रह्मचर्य का पालन न करने, व्यभिचार करने, कुसङ्ग, आलस्य, असत्य-व्यवहार, छल-कपट हिंसा, पर-हानि करने आदि में अधर्म है। -सत्यार्थप्रकाश के आधार पर  
महर्षि मनु ने धर्म के जो लक्षण लिखे हैं वे  सार्वभौम हैं।
यथाधृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ -मनु०६।९२
धृतिः-सदा धैर्य रखना। तनिक-तनिक-सी बातों में अधीर न होना।
क्षमा-निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ सहनशील रहना।
. दम:-चञ्चल मन को वश में करके उसे अधर्म की ओर जाने से रोकना
अस्तेयम्-चोरी-त्याग। बिना स्वामी की आज्ञा - के किसी पदार्थ के लेने की इच्छा भी न करना। _
शौचम्-बाहर और भीतर की पवित्रतावस्त्र-प्रक्षालन आदि से बाहर की और राग द्वेष त्याग से अन्दर की शुद्धता रखना
इन्द्रियनिग्रहः-सभी इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोककर धर्म-मार्ग में चलाना
धी:-मादक द्रव्यों के त्याग, सत्संग योगाभ्यास से बुद्धि को बढ़ाना।
विद्या-पृथिवी से लेकर परमेश्वर--पर्यन्त पदार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना विद्या है
सत्यम्-जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा जानना, मानना, बोलना और लिखना सत्य कहलाता है।
अक्रोध:-क्रोध न करना, सदा शान्त रहनाइन दस लक्षणोंवाले धर्म का पालन सभी को करना चाहिए।
साभार -धर्म -शिक्षा 
लेखक -स्वामी  जगदीश्वरानन्द सरस्वती 
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