ईश्वर का वेदोक्त स्वरूप ●
● ईश्वर का वेदोक्त स्वरूप ●
● Vedic Conception of God ●
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषि परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥
यजुर्वेद : ४०.८📚
व्याख्यान🛕
(सः) वह परमात्मा
(पर्यगात्) सब में व्यापक है, आकाश के समान सब जगह में परिपूर्ण व्यापक है।
(शुक्रम्) शीघ्रकारी है, सब जगत् का निर्माता है।
(अकायम्) वह कभी शरीर (अवतार) धारण नहीं करता, क्योंकि वह अखण्ड, अनन्त और निर्विकार है। इससे देह धारण कभी नहीं करता। उससे अधिक कोई पदार्थ नहीं है। इसी से ईश्वर का शरीर धारण करना कभी नहीं बन सकता।
(अव्रणम्) वह अखण्ड-एकरस, अच्छेद्य, अभेद्य, निष्कम्प और अचल है । इससे अंशांशिभाव भी उसमें नहीं है, क्योंकि उसमें छिद्र किसी प्रकार से नहीं हो सकता।
(अस्नाविरम्) नाड़ी आदि का प्रतिबन्ध या बन्धन भी उसका नहीं हो सकता । अति सूक्ष्म होने से ईश्वर को कोई आवरण नहीं हो सकता।
(शुद्धम्) वह परमात्मा सदैव निर्मल है । वह अविद्या, जन्म, मरण, हर्ष, शोक, क्षुधा तृषादि दोषोपाधियों से रहित है।
(अपापविद्वम्) वह कभी पापाचरण, अन्याय नहीं करता, क्योंकि वह सदैव न्यायकारी ही है।
कविः) वह त्रैकालज्ञ (सर्वज्ञ - सर्ववित्) महा विद्वान् है, जिसकी विद्या का अन्त कभी कोई नहीं ले सकता।
(मनीषी) सब जीवों के मन (विज्ञान) का साक्षी, सर्वान्तर्यामी, सबके मन का दमन करने वाला है।
(परिभूः) वह सब दिशा और सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है । सबके ऊपर, सर्वोपरि विराजमान है।
(स्वयम्भूः) वह स्वयं-सिद्ध है। जिसका आदि कारण माता, पिता, उत्पादक कोई नहीं, किन्तु वही सब का आदि कारण – निमित्त कारण है।
याथातथ्यतः अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः) वह ईश्वर अपनी सनातन (अनादि) जीव रूप प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों अर्थात् सत्य विद्या का उपदेश चार वेद द्वारा कराता है। उस हमारे दयामय पिता परमेश्वर ने बड़ी कृपा से अविद्यान्धकार का नाशक, वेद विद्यारूप सूर्य प्रकाशित किया है और सबका आदि [निमित्त] कारण परमात्मा है, ऐसा अवश्य मानना चाहिए। ऐसे विद्या पुस्तक का भी आदि कारण ईश्वर ही को निश्चित मानना चाहिए। विद्या का उपदेश ईश्वर ने अपनी कृपा से किया है। क्योंकि हम लोगों के लिए उसने सब पदार्थों का दान दिया है, तो विद्यादान क्यों न करेगा। सर्वोत्कृष्ट विद्या पदार्थ का दान परमात्मा ने अवश्य किया है, तो वेद के बिना अन्य कोई पुस्तक संसार में ईश्वरोक्त नहीं है। जैसा पूर्ण विद्यावान् और न्यायकारी ईश्वर है वैसा ही वेद पुस्तक भी है। अन्य कोई पुस्तक ईश्वरकृत वेदतुल्य व अधिक नहीं है।
🌷[स्रोतः महर्षि दयानन्द सरस्वती का ‘आर्याभिविनय’ ग्रन्थ]
● Vedic Conception of God ●
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषि परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥
यजुर्वेद : ४०.८📚
व्याख्यान🛕
(सः) वह परमात्मा
(पर्यगात्) सब में व्यापक है, आकाश के समान सब जगह में परिपूर्ण व्यापक है।
(शुक्रम्) शीघ्रकारी है, सब जगत् का निर्माता है।
(अकायम्) वह कभी शरीर (अवतार) धारण नहीं करता, क्योंकि वह अखण्ड, अनन्त और निर्विकार है। इससे देह धारण कभी नहीं करता। उससे अधिक कोई पदार्थ नहीं है। इसी से ईश्वर का शरीर धारण करना कभी नहीं बन सकता।
(अव्रणम्) वह अखण्ड-एकरस, अच्छेद्य, अभेद्य, निष्कम्प और अचल है । इससे अंशांशिभाव भी उसमें नहीं है, क्योंकि उसमें छिद्र किसी प्रकार से नहीं हो सकता।
(अस्नाविरम्) नाड़ी आदि का प्रतिबन्ध या बन्धन भी उसका नहीं हो सकता । अति सूक्ष्म होने से ईश्वर को कोई आवरण नहीं हो सकता।
(शुद्धम्) वह परमात्मा सदैव निर्मल है । वह अविद्या, जन्म, मरण, हर्ष, शोक, क्षुधा तृषादि दोषोपाधियों से रहित है।
(अपापविद्वम्) वह कभी पापाचरण, अन्याय नहीं करता, क्योंकि वह सदैव न्यायकारी ही है।
कविः) वह त्रैकालज्ञ (सर्वज्ञ - सर्ववित्) महा विद्वान् है, जिसकी विद्या का अन्त कभी कोई नहीं ले सकता।
(मनीषी) सब जीवों के मन (विज्ञान) का साक्षी, सर्वान्तर्यामी, सबके मन का दमन करने वाला है।
(परिभूः) वह सब दिशा और सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है । सबके ऊपर, सर्वोपरि विराजमान है।
(स्वयम्भूः) वह स्वयं-सिद्ध है। जिसका आदि कारण माता, पिता, उत्पादक कोई नहीं, किन्तु वही सब का आदि कारण – निमित्त कारण है।
याथातथ्यतः अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः) वह ईश्वर अपनी सनातन (अनादि) जीव रूप प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों अर्थात् सत्य विद्या का उपदेश चार वेद द्वारा कराता है। उस हमारे दयामय पिता परमेश्वर ने बड़ी कृपा से अविद्यान्धकार का नाशक, वेद विद्यारूप सूर्य प्रकाशित किया है और सबका आदि [निमित्त] कारण परमात्मा है, ऐसा अवश्य मानना चाहिए। ऐसे विद्या पुस्तक का भी आदि कारण ईश्वर ही को निश्चित मानना चाहिए। विद्या का उपदेश ईश्वर ने अपनी कृपा से किया है। क्योंकि हम लोगों के लिए उसने सब पदार्थों का दान दिया है, तो विद्यादान क्यों न करेगा। सर्वोत्कृष्ट विद्या पदार्थ का दान परमात्मा ने अवश्य किया है, तो वेद के बिना अन्य कोई पुस्तक संसार में ईश्वरोक्त नहीं है। जैसा पूर्ण विद्यावान् और न्यायकारी ईश्वर है वैसा ही वेद पुस्तक भी है। अन्य कोई पुस्तक ईश्वरकृत वेदतुल्य व अधिक नहीं है।
🌷[स्रोतः महर्षि दयानन्द सरस्वती का ‘आर्याभिविनय’ ग्रन्थ]
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