अद्वैतवाद समीक्षा

 अद्वैतवाद समीक्षा

परमपिता परमेश्वर को नमन करते हुए सभी आर्य विद्वानों को नमस्ते जी।

हमारे प्राचीन आर्यवर्त में जब भी सनातन धर्म पर या राष्ट्र की प्रभुसत्ता पर संकट आया है उस काल में अवश्य ही ईश्वर प्रेरणा से किसी न किसी महापुरूष का जन्म अवश्य हुआ है। योगिराज शिव,श्री राम,श्रृंगी ऋषि, महर्षि व्यास ,श्री कृष्ण,आदि शंकराचार्य,वीर शिवाजी,महाराणा प्रताप,ऋषि दयानंद सरस्वती आदि अनेक नाम है ऐसे महापुरुषों के जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन धर्म व देश हेतु समर्पित कर दिया।

इसी श्रंखला में आदि गुरु शंकराचार्य जी एक महान योगी व विद्वान हुए हैं।

आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व इनका जन्म हुआ था और उस काल में देश कुरीतियों में जकड़ा था बौद्ध,जैन व वाममार्ग अपनी जड़ें देश मे फैला रहे थे वैदिक धर्म का लोप हो रहा था।

उस काल मे शंकराचार्य जी ने देश भर में घूम घूम कर शास्त्रार्थ किया व देश से बौद्ध धर्म का नाश किया वैदिक धर्म का प्रचार किया।

उनका विस्तृत जीवन चरित्र की चर्चा यहां नही कर रहा हूँ।

आदि शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ हेतु वेदो के आधार पर अद्वेतवाद मत बनाया था उनका वह मत अकाट्य रहा।

किन्तु भ्रांति उत्पन्न हो गयी उनके शिष्यों में और लोगों में की शंकराचार्य जी अद्वेतवादी थे। जबकि मूल अद्वेत की अवधारणा बहुत गम्भीर और गहरा विषय है।

इस विषय पर आचार्य अग्निव्रत जी के कुछ विचार प्रस्तुत है।

इस संसार में जहाँ चार्वाक, बौद्ध व जैन मत आदि ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते हैं, वहीं कुछ अध्यात्मवादी मानते हैं कि इस सम्पूर्ण सृष्टि में मात्र ईश्वर तत्व की सत्ता है, जीव व प्रकृति आदि की कोई सत्ता नहीं है। यह विचार मध्यकाल में अनेक आचार्यों का रहा है। इन आचार्यों में से आद्य शंकराचार्य को प्रमुख स्थान दिया जाता है। अद्वैतवाद का आधार महर्षि कृष्ण द्वैपायन बादरायण व्यास (महर्षि वेदव्यास) का ब्रह्मसूत्र नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। यह मत संसार के अनेक वैदिक व अवैदिक किंवा भारतीय व विदेशी मत मतान्तरों को प्रभावित करता रहा व कर रहा है। हम इसकी चर्चा न करके मात्र इसी विषय पर विचार करेंगे कि यह मत क्यों वेद विरुद्धस्वयं ब्रह्मसूत्रों क के विरुद्ध तथा विज्ञान व युक्तियों के विरुद्ध है? ब्रह्मसूत्रों में प्रथम दो सूत्रों से ही अद्वैतवाद खण्डित हो जाता है। वे दो सूत्र इस प्रकार हैं

“अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’’ (ब्र.सू. L१.१.१)

‘'जन्माषस्य यतः” (ब्र .सू.१.१.२)

इन दो सूत्रों से ब्रह्म विषयक चर्चा प्रारम्भ करते हुए कहा है-

"अब हम ब्रह्मा को जानने की इच्छा करते हैं। वह ब्रह्म कैसा व कौन है? यह बताते हुए कहते हैं कि जिससे जगत् का जन्मादि (जन्म, स्थिति व प्रलयादि) होता है ।”

जरा विचारें कि जिस जगत् का जन्म होता है, उसमें स्थिति होती है तथा समय आने पर ब्रह्म उसका प्रलय भी करता है, वह जगत् कभी मिथ्या(झूठ) नहीं हो सकता। न जाने क्यों, इस ब्रह्म प्रतिपादक महान् ग्रन्थ के आधार पर ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य सभी पदार्थों की सत्ता को नकारा जाता है?

जबकि यह ग्रन्थ अपने प्रारम्भ में ही जगत् के सभी पदार्थों की वास्तविकता को प्रतिपादित कर रहा है। यह बात पृथक है कि जगत् ब्रह्म की भाँति नित्य नहीं है,परिवर्तशील है परन्तु जगत् मिथ्या (अवास्तविक) भी नहीं है।

वास्तव में आचार्य शंकर के मत को समझने में हम सबसे भूल हो गई है।

मिथ्या का अर्थ जो शाश्वत न हो अर्थात् सदैव एक जैसा रहने वाला न हो,परिवर्तशील हो।

गौडपादाचार्य जी और शंकराचार्य जी ने इसी संदर्भ में मिथ्या का प्रयोग किया था।

किंतु उनके शिष्यों से कालांतर में इस मत को समझने में भूल हो गई है।

गौडपादाचार्य ने "ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" सूत्र कहा जिसका अर्थ है कि ब्रह्म के सापेक्ष जगत मिथ्या है। जैसा सत्य ब्रह्म में है अपरिवर्तनशील वैसा जगत नही है।

इस सूत्र में हमे सापेक्षिकता का ध्यान रखना होगा कि किसके सापेक्ष क्या बात कही जा रही है।

ब्रह्म को किसी आधार की आवश्यकता नही स्वयं सिद्ध है वो किन्तु मूल प्रकृति को कार्य जगत में आने के लिए आधार की आवश्यकता वो आधार ब्रह्म है।

इसलिए जगत मिथ्या अर्थात् अपरिवर्तनशील व कृत्रिम हुआ।

किन्तु जगत असत्य है झूठ है ऐसा उन्होंने कभी न कहा।

क्रमशः

यहाँ जीव व प्रकृति रूपी मूल उपादान कारण के अस्तित्व का भी निषेध नहीं है। ब्रह्मसूत्र ग्रन्थ के विषय में यह बहुत बड़ी भ्रान्ति हो गयी है, हो रही है। हमने 'वर्ल्ड कांग्रेस ऑन वैदिक सायंसेज' बैंगलोर में अगस्त २००४ में अनेक वैदिक विद्वानों तथा वर्तमान भौतिक शास्त्रियों को ब्रह्मसूत्र की मिथ्या व्याख्या करते देखा है। अद्वैतवाद की शास्त्रीय समीक्षा हेतु पाठकों को महर्षि दयानन्द सरस्वती रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक क्रान्तिकारी ग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिये। हम यहाँ उसका पिष्टपेषण करना आवश्यक नहीं समझते, बल्कि हम यहाँ वर्तमान विज्ञान का आश्रय लेकर अद्वैतवाद की पुष्टि के प्रयास की समीक्षा अवश्य करेंगे। इस पक्ष के विद्वान सर्वप्रथम आधुनिक विज्ञान के पदार्थ द्रव्य व ऊर्जा के पारस्परिक रूपान्तरण की चर्चा करते हुए अन्त में इन दोनों को चेतन ऊर्जा में परिवर्तनीय व उससे उत्पन्न सिद्ध करते हैं। सामान्यतः यह विचार वैज्ञानिक सत्य ही प्रतीत होता है परन्तु इस पर विशेष चिंतन करने पर इसकी असारता स्पष्ट हो जाती है। सर्वप्रथम इस बात का विचार करें कि परिवर्तनीय तत्व कौन-२ हो सकते हैं? स्पष्टतः जो पदार्थ विकारी होते हैं, वे ही विकार को प्राप्त होकर रूपांतरित होने में सक्षम होते हैं। अब प्रश्न उठता है कि विकारी पदार्थ क्या व कैसा होता है? हमारी दृष्टि में विकारी पदार्थ जड़ ही हो सकता है। यदि एक-२ सूक्ष्म कण वा क्वाण्टा को जड़ के स्थान पर चेतन मानें, तब प्रश्न यह उठेगा कि क्या प्रत्येक कण वा क्वाण्टा की चेतना पृथक्-२ है वा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की चेतना एक ही है? यदि प्रत्येक कण की चेतना पृथक्-२ है, तब ब्रह्माण्ड भर के सम्पूर्ण पदार्थ को कैसे एक प्रकार के नियमों में बंधा देखा जाता है? जिस प्रकार प्रत्येक प्राणी की ऐच्छिक क्रियाएं, विचार, संस्कार पृथक्-२ होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक कण व क्वाण्टा को यदि चेतन मानें, तो उनकी क्रियाएं परस्पर समान ही हों, यह आवश्यक नहीं है। वे परस्पर संगत रहें वा नहीं, यह भी आवश्यक नहीं है। प्रत्येक कण की पृथक्-२ चेतन सत्ता होने पर भी वे परस्पर मिलकर इस सृष्टि की रचना हेतु परस्पर अपने नाना समूह बना सकें और सम्पूर्ण सृष्टि के असंख्य नियमों को बना सकें, यह सर्वथा असम्भव है? ऐसा कार्य कोई प्राणी नहीं कर सकता। सर्वाधिक बुद्धिमान माना जाने वाला प्राणी मनुष्य अपने समाज का निर्माण करता है परन्तु उन समाजों की संरचना ऐसी जटिल नहीं होती, जैसी कि विभिन्न जड़ पदार्थों में उन पदार्थों के अवयवभूत सूक्ष्मकण वा क्वाण्टाज निर्मित करते हैं। विभिन्न प्राणी अपनी सामाजिक संरचनाओं को समय-२ पर अपनी-२ रुचि व स्वभाव-संस्कार के अनुसार बदलते रहते हैं परन्तु विभिन्न कणों वा क्वाण्टाज के नियम कभी परिवर्तित नहीं होते।

नोटः हमारी दृष्टि में आद्य शंकराचार्य महाराज अद्वैतवादी नहीं थे। जो वर्तमान अद्वेतवाद प्रचलित है वह उनकामत नही था।

उन्हें समझने में उनके अनुयायियों ने कुछ भूल की है।

"वेदविज्ञान-अलोक:" से उद्धृत

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